गुरुवार, 17 जून 2010

एक अच्छा इन्सान

पूर्वाग्रह से ग्रसित कौन

अक्सर यह अनुभव में आया है कि जब किसी से विचार नहीं मिले तो माना जाता है कि वह पूर्वाग्रह से ग्रसित है । पूर्वाग्रह से कोई भी ग्रसित हो सकता है । चाहे विचार मिले ना मिले । यह भी जरूरी नहीं कि जो पूर्वाग्रह से ग्रसित है,वह अच्छा व्यक्ति है भी या नहीं । अच्छे से अच्छा व्यक्ति पूर्वाग्रह से ग्रसित पाया जाता है । चाहे वह आपके हमारे विचारों से सहमत हो या न हो । लेकिन इधर उन बुद्धिजीवियों को पुर्वाग्रह से ग्रसित पाया गया,जो परिवार,समाज,देश में ही नहीं बल्कि देश के बाहर भी प्रसिद्ध है । जो ऐसा कार्य करते है,जिनके जिन्दा रहने या न रहने पर भी इतिहास लिख लेते है । इनमें प्रमुख है साहित्यकार । जी हां,साहित्यकार । साहित्यकार सबसे ज्यादा पूर्वाग्रह से ग्रसित पाया जाता है । वह अपने को ठीक उसी तरह समेटना चाहता है जिस तरह कछुआ स्वयं को समेट लेता है । वह केवल अपनी बिरादरी में ही सिमट कर रह जाता है । वह अपने और अपने बिरादरी के अलावा किसी अन्य को कुछ भी नहीं समझता या नहीं मानता । यह जरूरी नहीं कि एक अच्छा साहित्यकार एक अच्छा इन्सान हो और यह भी जरूरी नहीं कि एक अच्छा इन्सान एक अच्छा साहित्यकार हो । साहित्यकार होना या इन्सान होना,दोनों अलग अलग मायने रखता है किन्तु एक अच्छे साहित्यकार को सबसे पहले एक अच्छा इन्सान होना जरूरी है । 99.99 प्रतिशत साहित्यकार अच्छे इन्सान नहीं होते बल्कि मात्र 0.01 प्रतिशत साहित्यकार अच्छे इन्सान देखने में आए है ।
मेरे अनुभव में व्यक्तिगततौर पर स्व.हरिवंशराय बच्चन,स्व.विष्णुप्रभाकर,सर्वश्री चन्द्रकान्त देवताले,प्रो कमला प्रसाद,पूर्णचन्द्र रथ,राजेन्द्र शर्मा,अक्षय कुमार जैन ]विजय बहादुर सिंह जैसे साहित्यकार बहुत अच्छे व्यक्ति होना पाए गए है । ऐसा नहीं कि अन्य साहित्यकारों से मैं असहमत हूं बल्कि मुझे ऐसा लगता है अन्य साहित्यकार बन्धु मेरे विचारों से सहमत नहीं है ।
प्रो.कमला प्रसाद कहते हैं कि केवल विचारों की असहमति के ही कारण साहित्यकार खेमों में और व्यक्तिगततौर पर बंटे है ।
वस्तु विचारों की असहमति के कारण ही हमारे देश में अनेकों साहित्यिक खेंमें बने है और अनेक विचारवादी पैदा हुए है । कहीं सहमति तो कहीं असहमति का माहौल बना हुआ है ।
बावजूद इसके साहित्यकारों में खेमों के अलावा भी व्यक्तिगत दुराग्रह पूर्वाग्रह का रोग लगा हुआ है । जैसे मेरे अनुभव में आया है कि साहित्यकार अपने विचारधारा के साहित्यकार के अलावा अन्य किसी से कोई व्यवहार नहीं रखता । न तो वह पत्र का जवाब देता है और न अपनी ओर से चर्चा के लिए पहल करता है ।
ऐसे कई साहित्यकार है जो मेरे पत्रों या ईमेल या एस एम एस का जवाब देना पसन्द ही नहीं करत । इनमें ज्यादातर सम्पादकगण भी शामिल है ।
आश्चर्य तो यहां तक होता है कि जब कभी ये साहित्यकार या सम्पादक महोदय से आमना सामना हो जाए तो बड़ी आसानी से मुंह मोड लेते है या ऐसा दिखावा करते है जैसे वे हमें जानते ही नहीं ।
भोपाल में ही ऐसे साहित्यकार और सम्पादक गण है जो राष्टीयस्तर पर प्रसिद्ध है और जब कभी उनसे आमना सामना होता है तो ऐसा व्यवहार करते है जैसे वे हमें जानते ही नहीं है । मैं उनका नाम लेना नहीं चाहूंगा किन्तु वे स्वयं इसे पढ़कर समझ जाएंगे ।
तो बन्धुओं , तआज्जुब की बात नहीं होने चाहिए क्योंकि जब तक साहित्यकार अच्छा इन्सान नहीं होता,वह साहित्यकार तो कहलाएगा ही किन्तु एक अच्छा इन्सान जाना नहीं जाएगा ।
एक बहुत बड़े आई ए एस अधिकारी का पिछले दिनों इन्तकाल हुआ । हालांकि वह अधिकारी एक साहित्यकार थे किन्तु वे एक बहुत खूंसट और बदमिजाज इन्सान भी थे । उन्हें अच्छे साहित्यकार के नाम से जाना तो जाएगा किन्तु एक बदमिजाज और खूंसट अधिकारी की छवि बरकरार रहेगी ।
इसलिए एक अच्छा साहित्यकार होना जितना जरूरी है उससे कहीं ज्यादा जरूरी है एक अच्छा इन्सान होना ।

सोमवार, 14 जून 2010

आज़ादी की पड़ताल

(1)
मैं नशे में नहीं हूं
और न ही उलजलूल बक-बक कर रहा हूं
नशे के ऊपर और नशा
और नशे के भीतर और नशा
मेरे सिर पर सवार होने का
सवाल ही उपस्थित नहीं होता ।

नशे के भीतर या बाहर के
बीच का जो अन्तराल है
जाने कब का फुर्र हो चुका है
तो श्रीमान जी
इसे बाकायदा नशे के बाहर का
एक तरह का नशा भी कह सकते हैं
जिसका उस वाले नशे से
कोई लेना देना नहीं है ।

यह जो नशा है,वह
बस इतना सा ही है जितना
आप मेरी कविता सुनते वक्त
महसूस कर सकते हैं
ये वो नशा है,जिसे
अमीर,गरीब,फकीर,साधु
और देश काल के भीतर रहनेवाले
महसूस कर सकते हैं ।

देशकाल को जाने बिना
भला यह नशा उतर कैसे सकता है ।
तो श्रीमानो ! मेरा यह नशा भी बरकरार रहने दो ।
तब ही तो बता पाऊंगा मैं
उसके सीने में उठती कसक
और आंखों से झरते आंसू
अंधेरों में तपते जिस्म
आन्तों में पड़ती मरोड़ें
मां के सीने का सूखता दूध
और तिज़ोरी में खनकते जवाहरात ।

यह नशा बरकरार रहने दो उतना
जितने से अंगूर की बेटी नाचने लग जाए
छमाछम ।।
(2)
आज़ादी और मेरे बीच
जो फासला है
वह महज़ पांच साल की उम्र का है
यानि कि मैं आज़ादी से
पांच बरस की उम्र में छोटा हूं
पांच बरस की उम्र के पाट को
पाटना मेरे लिए आसान तो क्या
बहुत ही कठिन है।
यदि मैं आज़ादी के साथ पैदा हुआ होता
तो मेरे ठाट-बाट कुछ और ही होते
जिसे देख आप लोगों की आंखे चौंधिया जाती ।
एक सौ तीस करोड़ की आबादी में
बुद्धिजीवी,पण्डित,मौला,फादर
राजनेता,अभिनेता,कलाकार
और मेरे प्रिय कवि चन्द्रकान्त देवताले
सारे के सारे यही कहते
तुम्हें आज़ादी के साथ पैदा होना था
होते तो तुम आज
आखिरी नहीं पहली पंक्ति में बैठे नज़र आते ।
(3)
समूचे भारत में
कई वर्ग के लोग रहते चले आ रहे हैं
जो हिन्दुस्तानी है वे हिन्द की सन्तान है
और जो भारतीय है,वे भरत के वंशज है
लेकिन जो इण्डियन है
वे न तो हिन्दुस्तानी है और न ही भारतीय
वे इण्डी के अयन है
अयन के तात्पर्य से आप भलिभांति परिचित होंगे
हाथ जला देते हैं ये,और
अक्सर धीमे ज़हर के समान असरदार होते हैं
ये जो इण्डियन है
आज़ादी के साथ पैदा होते ही
आज़ाद इण्डियन कहलाएं जाते हैं और
तब से आज तक वे बरोबर आज़ाद ही है।
इन्ही की करतूतों से
हालात-ए-मुल्क मुश्किलात में हैं ।

जब से विश्व-ग्राम बना है
हिन्दुस्तानी और भारतीय सिकुड़ गए है,और
इण्डियन्स का विस्तार होता चला जा रहा है
नवउदारवाद और नव-उवनिवेशवाद की जड़ें
हिन्दुस्तान और भारत को चट कर
इण्डिया को फला-फूला रही है।

हिन्दुस्तानी और भारतीय
आज़ादी के पहले भी गुलाम थे
आज़ादी के बाद भी गुलाम है
इन गुलामों में मैं भी एक गुलाम हूं
आज़ादी के साथ पैदा न होने का ग़म
मुझे आज तक साल रहा है।

(4)
उस रोज़ कॉफी हाउस के बाहर
चिथड़ों में लिपटा,गालों से पिचका
पीठ से लगी पीठ,आधे से ज्यादा झुका
बत्तीसी उधड़ी,आंखें घंसी
उलझे बालों में
हाथ पसारे दयनीय याचना में करबद्ध
लोकतन्त्र थर्र-थर्र कांपते गिड़गिड़ाते रहा था।
किसी ने उसके पसरे हाथों पर
दयारूपी भीख नहीं रखी
बल्कि हुआ यह है कि
धकियाते हुए उसे
फर्राटे से अपनी एम्पाला ले उड़े
पास ही सीट पर बैठा बुलडॉग
भौंकता रहा लोकतन्त्र पर
अपनी पूरी बत्तिसी निकाले हुए ।

तुमने देखा होगा चन्द्रभान राही
और आपने भी देखा होगा नरेन्द्र गौड़जी
लोकतन्त्र कुत्ते के जबड़ें में
इस तरह जकड़ा था
मानो वह लोकतन्त्र नहीं
हड्डी का स्वाददार टुकड़ा हो ।

मेरा यह कहना होगा कि
जो आज़ादी के साथ पैदा हुए
असल में वे ही सर्वशक्तिमान कहलाए
उन्हें इतनी आज़ादी मिल गई कि
संविधान की धज्जियां उड़ाने में
हासिल हो गई है महारत
चाहे जिसे खरीदो,चाहे जिसे बेचो
बाकायदा लायसेन्सधारी है ये सब
वे आज़ादी से सीना ताने
चाहे जिसे घकिया सकते
बल्कि बीच बाज़ार खड़े होकर
उतार सकते मौत के घाट चाहे जिसे
हम और आप देखते रह जाएंगे
मेरे प्रिय मित्र प्रतापराव कदम
और आप कुछ भी नहीं कर पाएंगे
नवल शुक्ल जी ।

(5)
इतना तो सच है कि
जब गांधी बाबा ने स्वराज का
नारा बुलन्द किया था
तब भी उनकी अहमियत सारा देश जानता था
और आज जब
हमारे बीच गांधी बाबा नहीं है
अब भी सारा हिन्दुस्तान
गांधी बाबा की अहमियत को बरकरार रखे हुए हैं
एक कदम भी चल नहीं पा रहे हैं
जहां कहीं या हर कहीं
गांधी बाबा का दामन पकड़े
आप,वह और हम सब
पार नहीं पा सकते किसी परेशानी के
गांधीबाबा का मुखड़ा देखते ही
अच्छे खासे शख्स के या
कू्ररतम से क्रूरतम आदमी के
चेहरे दमकने लग जाते हैं
आखिर क्यों न हो
एक गांधी बाबा ही है जिनके दम पर
सारा हिन्दुस्तान
एक दो कदम नहीं बल्कि
हज़ार-हज़ार कदम एक साथ चल देता है
या इसे यों कह सकते हैं
गांधीबाबा के दम पर
देश के किसी भी भले आदमी का ईमान
खरीदा जा सकता है बिल्कुल सस्ते दामों पर ।
आप,आप और आपने शायद
गांधी बाबा के श्रीमुख पर हमेशा मधुर मुस्कान देखी हो
यह वो ही मुस्कान है
जिसके देखते ही रोते हुए चेहरे पर पानी आ जाता है
रिश्तों के बीच टूटती दीवार
या तो हरहराकर टूट जाती है या
टूटते-टूटते बच जाया करती है ।
गांधी बाबा की वह मधुर मुस्कान एक जादू है
इस जादू को आप नहीं समझ पाएंगे भगवत रावतजी
इस मुस्कान को वे ही समझ सकते हैं
जिनको गांधी बाबा के बिना चैन नहीं आता
उड़ जाती है नीन्द आंखों की
एक और खास बात है
जिनके पास गांधी बाबा है उनकी भी और
जिनके पास गांधी बाबा नहीं है उनकी भी
नीन्द उड़ी-उड़ी रहती है
जितना ज्यादा गांधी बाबा को चाहोगे
उतनी ही हवस बढ़ती जाएगी
गांधी बाबा की हवस इतनी बढ़ जाती है कि
आदमी को उचित-अनुचित कुछ नहीं सुझता ।

तो भाइयों और साहिबानों !
आपमें यदि कूवत है
गांधी बाबा को हज़म करने की
तो मैं आपको सलाह देना चाहूंगा कि
जितने गांधी बाबा आते रहे
उन्हें आने ही आने दो
जब तक वे चाहे उन्हें आने ही दो,और
बिना डकार लिए हज़म करते जाओ ।
जब नेता,राजनेता,नौकरशाह
और नीचले ऊपरवाले लोग-बाग
फाइलों में ही योजनाएं और परियोजनाएं
बनाते रहते हैं
पुल-पुलिया,सड़क,बांध,भवन
तन्त्र-यन्त्र मन्त्र सब डकारते जाते रहते हैं
तब भी गांधी बाबा उन्हें देख-देख
मद्धम-मद्धम मुस्कराते रहते हैं
मानो जतला रहे हो कि
भैयन ! तुम सारे काले-करतूतों को
सरेअंजाम देते रहे,मैं
मैं तुम्हें देख-देख मुस्काते रहूंगा ।
1948 के बाद से गांधी बाबा
देश भक्तों की काली-करतूतों को
देख-देख बराबर मुस्करा रहे हैं
और उनकी तिजोरियों में
बड़े इत्मिनान से आराम फरमा रहे हैं ।
(6)
उस रोज़
न्यू मार्केट के हृदय स्थल पर स्थित
टॉप-एन-टाउन के चौराहे पर
कॉफी हाउस के मुंहाने पर
बहुत चहल-पहल हो रही थी
स्कूल-कॉलेज और भले घरों के लड़के-लड़कियां
आदमी-औरत,युवक-युवतियां
जवान - वृद्ध और
तरह -तरह के लोग-बाग
हसीन और जवान शाम का
लुत्फ उठा रहे थे
एक दूसरे की बगलें झांक रहे थे
गलबईयों का दौर चल रहा था
और जिन्दगी पहले से कहीं ज्यादा
चल रही थी तेज-फर्राटेदार
की जा रही थी जिन्दगी को
सफल बनाने की पूरी कोशिश
कोई भी इन्सान ऐसे वक्त को
अपने हाथों से फिसल देना नहीं चाह रहा था
जैसे फिसल जाती है बन्द मुट्ठी से रेत
और रह जाते हाथ रिते के रिते...

कोई भी भूखा-प्यासा दिख नहीं रहा था
सारे के सारे खा-पी के अघा रहे थे
इतना ही नहीं बड़े मज़े ले-लेकर
दिखा रहे थे ठेंगा
भारत के भाल पर
ठोक रहे थे पेंगा ।

एक सौ तीस करोड़ आबादी में से
तीस करोड़ प्रजातन्त्र
जी रहे कीड़े-मकोड़ों की तरह
घुटनों में मुंह छुपाएं
कांपती हुई ठण्ड
तपाती हुई वैशाखी धूप,और
झुलसती हुई रातों में ।

इतना तो सच है
मेरे प्रिय कवि राजेश जोशी जी
कि तन्त्र के मुंह में लग चुका है
प्रजा का ताज़ा-ताज़ा गर्म
स्वादिष्ट रक्त
उसकी डाढों में बिलख रहा है
हाडमांस का कमजोर प्रजातन्त्र ।
00

रविवार, 4 अप्रैल 2010

कविता

कविता
वृद्ध अनाथ हो रहे हैं
आसमान की ओर टकटकी लगाए देख रहे हैं वृद्ध
वृद्ध कुलबुला रहे है
कुलबुला रहे हैं वृद्ध
सबसे भयानक विडम्बना है यह हमारे समय की
हल करने के लिए किया जाना चाहिए
इसे प्रश्न पत्र में शामिल
अनिवार्य प्रश्नों के समूह मे
वृद्धाश्रम क्यों भेजे जा रहे हैं
क्या संतानहीन है सारे वृद्ध
कम हो गई होगी जगह संतानों के दिलों में
घरों में चाहे कितनी ही जगहें हो
आसमान में तारा टूटा होगा और
वह कहीं ऐसी जगह गिरा होगा
अस्तित्व जहां उसका कुछ होगा ही नहीं
टकटकी लगाए देखना
इस उम्मीद के साथ कि
किन्ही हाथों का सहारा मिल जाए।
तिल का ताड़ बनाना इतना आसान नहीं है
जितना आसान दुरदुराना होता है
क्या संवेदनाएं रफूचक्कर हो गई है
क्या कर्त्तव्यविमूख हो गया है हमारा समय
या सारी पृथ्वी को कर दिया गया है खारिज।
कुलबुलाना नियति बन गई है।
वृद्ध कुलबुला रहे हैं.....क्यों
कब तक कुलबुलाते रहेंगे
कुलबुला रहे हैं आसामान की ओर ताकते हुए
वृद्ध कुलबुला रहे है।
--.कृष्णशंकर सोनाने
00
खत्म हो गए हैं
खत्म हो गए है
आदर्श और मानवता के सारे सिद्धान्त
समानता की बातें करना
बीती सदी की बासी खरोंचन हो गई है
अहिंसा के कंटीलें पथ पर चलकर
आज तक किसी का कल्याण हो नहीं सका
बलि के बकरे का
बलिदान हो जाने पर भी
खानेवाले को स्वाद नहीं आता
सत्य अहिंसा के पथ पर चलकर
सीने पर गोली खाने के बाद
झोंकी जा रही है जनता
भढ़भूंजे की भट्टी में
इसीलिए
यह जरूरी नहीं है कि
वे और उनकी संतानें
राज़ करें देश पर।
सीने पर गोली खाने
हम ही क्यों आगे आए
जो सबसे अधिक बेईमान है
और सबसे अधिक क्रर है
जो षढ़यंत्र की साजिश
रचने में माहिर है
वे ही मार्गदर्शन कर रहे हैं
ले चल रहे हैं प्रकाश से अंधकार की ओर।
--.कृष्णशंकर सोनाने
00
भरी दोपहरी
नहा रही वह गंगा जी के तट पर
देह गदराई
दमक रही है यौवनता के पथ पर ।।
दिख रही है
देह कंचन उघड़ी उघड़ी यहां वहां से
देख रही है
निगाहें सैंकड़ों छुपके छिपके जाने कहां से।
कैसी निर्लज्जता
बिखरी पड़ी है होटलों रेस्तरां रजत पट पर
देह गदराई
दमक रही है यौवनता के पथ पर ।।
उघड़ रही है
काया कंचन मेले और चौबारों में
शीत वर्षा
तपते चैत वह इतनाये बाज़ारों में ।
इठलाती मदमाती
वह कमर लचकाती चल पड़ी अब रैंप पर
देह गदरायी
दमक रही है यौवना के पथ पर ।।
अंग अंग मादकता
तिस पर रसभरे अधरों के प्याले
मात पिता भ्राता
भगिनी के मुख पर लगे आधुनिकता के ताले।
निकल पड़ी वह
सदी इक्कीसवीं के सुनहरे स्वप्निल पथ पर
जाने किधर वह
चली जा रही सभ्यता संस्कृति तज कर
देह गदरायी
दमक रही है यौवनता के पथ पर ।
00
मैं कविता रचता हूं
रचता क्या हूं
प्रियतमाओं के मुखड़े निहारता हूं
और पत्थरों से सिर टकराता हूं ।
मैं कविता रचता हूं
फूलों का रस और रसों की सुगन्ध
इस तरह चुरा लेता हूं
जिस तरह किसी के आंख का काजल
कोई चुरा लेता है।
मैं रचता हूं कविता
और चुपचाप
गिन लेता हूं पंख
उड़ती चिड़िया के
कितने पर है उसकी उड़ान ।
मैं कविता रचता हूं
किशोरीलाल की झोपड़ी में बैठे
और रांधता हूं
बच्चों को खुश करने के लिए गारगोटियों की सब्जी ।
मैं रचता हूं कविता
तसलीमा नसरीन की
आंखों के आंसू
अपनी आंखों में महसूसते हुए
कि क्यों एक नारी को समूचा एशिया महाव्दिप
निष्कासित करने के लिए उतारू है।
मैं इसलिए कविता रचता हूं कि
बगावत की मेरी आवाज़
जड़हृदयों के भीतर तक चोट कर जाए
और कहीं से तो
एक चिंगारी उठे।
मैं कविता रचता हूं
क्योंकि आप भी समझ लें कि
कविता रचने के बिना
मैं रह नहीं सकता ।
00-
विनय दुबे जब खुश होते हैं
नटराज बन जाते हैं
और खेलने लगते हैं डांडिया
विजय बहादुर सिंह के साथ ।
विनय दुबे जब खुश होते हैं
बड़ा तालाब भोपाल का
लबालब भर जाता है
और खबर बन जाती है
एशिया का वह तीसरे नम्बर का
नैसर्गिक तालाब है
जो भर गया है विनय दुबे के हंसने से ।
विनय दुबे जब खुश होते हैं
भारत भवन कभी स्वराज भवन में
सुनाने लगते हैं कविता
भगवत रावत को
सम्बोधित करते हुए
यकीन न हो तो आप लोग
हरि भटनागर
सम्पादक साक्षात्कार
संस्कृति भवन बाणगंगा
भोपाल से
पूछ सकते हैं।
-.दो शब्दों के बीच, से
रचनाकाल 21 जून 2004

कविता

आहूति
मैं कर्म यज्ञ में निज की आहूति देता हूं.......
मैं ही यजमान मैं ही यज्ञ का होता हूं........

पसन्द नहीं है उसको फूल पत्ती और गुलकन्द
वह भूखा तड़पता होता और वे खा रहे होते कलाकन्द
आंसू पोंछ कर गले स्नेह से लगाना पर्याप्त है
हवन कर निज का दुःख दारिद्र मिटाना पर्याप्त है

समर्पित निज को कर स्वयं हवन बन लेता हूं
मैं कर्म यज्ञ में निज की आहूति देता हूं.......

बड़े बड़े महलों राजप्रसाद किसके लिए
धन वैभव संपत्ति जायजाद किसके लिए
छोड़कर हाथ खुले चल देना होगा एक दिन
रह जाना होगा धरा का धरा यहां बिखरा हुआ

इसलिए मैं अपना सारा उपवन दे देता हूं
मैं कर्म यज्ञ में निज की आहूति देता हूं.......

जो जीवित है श्रद्धा नहीं उसके प्रति
बाद मृत्यु श्राद्ध की क्या आवश्यकता
भोग छप्पन चढ़ाये जाते बाद मरने के
जीताजी रूला रूला कर लड़पाने की क्या आवश्यकता

श्राद्ध नहीं मैं श्रद्धा को वरमाला पहना देता हूं
मैं कर्म यज्ञ में निज की आहूति देता हूं......

-.कृष्णशंकर सोनाने
जिस दिन से दुनिया
जिस दिन से दुनिया
इतनी बदल गई
इतनी कि अब
सब कुछ रंगहीन हो गया ।
दुनिया अब
इतनी बदल गयी है कि
सारे मानवीय सरोकार
हासिए पर डाल दिए गए है।
रिश्तों की कमजोर
हो गई है बुनियाद
विश्वासों की मिनार
ढग गई है
इसीलिए तो गंगा
अब मैली हो गई है।
कानून अंधा और
बौद्धिक विकलांगता से
ग्रसित हो गए
न्यायाधीश
दिशाहीन पदचिन्हों का अनुसरणा
किया जा रहा अंधाधुंध ।
व्यवस्थाएं लचर
असामाजिकता के
पूर्वाग्रह से ग्रसित
चिघाड़ चिंघाड़ कर
साबित कर रही है
अपने आपको आदर्श का दूत।
उठाईगीर लम्पट और
नम्बरदारों में
बदल गई है व्यवस्थापिका
चौर कर्म से अभिभूत
तंत्राधिशों की सत्ता
सावन भादों की
फलफूल रही है।
दुनिया अब इतनी
बदल गई है कि
संताप होता है
यह सोच सोचकर
अब क्या बच रह गया है दुनिया में ।
बदलते ही दुनिया
बदन गया मौसम
ऋतु्ओं का सहसा परिवर्तन
असहनीय हो गया है
उठ खड़ा हुआ है मौसम
इन्सानियत के खिलाफ ।
घोटालें जीवन का
बन चुके है पर्याय
बन चुका है अब
भ्रष्टाचार,शिष्टाचार ।
दुनिया के बदल जाते ही
भरभराकर गिर गई दीवार
आचरण नम्रता और सभ्यता की।
कहा करते थे जिस देश को
सोने की चिड़िया
दिखाई नहीं देती कहीं
चहचहाते हुए अब ।
दो लब्ज सुनने को आतुर
तड़प रही है संवेदना
प्रेम के
जाने कहां की गई है कैद
परिभाषा प्रेम की
इसी एक उम्मीद के साथ
अब तक जीवित है
मनुष्यता की जिजीविषा।
जब दुनिया
बदल ही गई है तो
उछल उछल कर
पीटा जाना चाहिए ढिंढोरा
बेहयायी नाइन्साफी नाउम्मीदी और
नामुरादी का ।
बदल गई है दुनिया,तब
बदल जाने दीजिए
हम तो जैसे थे पहले
आज भी वैसे ही है
अपना एक साल
आगे किए हुए ।
-.कृष्णशंकर सोनाने

कविता

राम का जैसे वनवास
सारा जीवन मेरा राम का जैसे वनवास हो गया ।
कुटिल खल कामियों के लिए जैसे परिहास हो गया..

मेरा यह प्रयत्न रहा सबको प्रसन्न करूं मैं
हो छोटे चाहे बड़े सबको नमन करूं मैं
खाली हाथ न जाने पाये कोई मेरे व्दारे से
हो भूखा चाहे प्यासा सबको तर्पण करूं मैं

सबकी आवभगत करने का मुझको जैसे अभ्यास हो गया
मैं नत मस्तक होकर इनका उनका सबका दास हो गया..ण-----

मैंने जिस जिसको भी चाहा हितैषी अपना माना
जिस जिसने जैसा चाहा गाया वैसे ही गाना
दिन को कहा रात, रात को दिन कह डाला
हां मे हां, ना में ना, बता किया उजाला

मानवता की खातिर मैं आज जैसे खल्लास हो गया
मेरा सारा जीवन तप तप कर जैसे सन्यास हो गया.....

जितना गरल पीता रहा उतना होते रहा परिष्कृत
जिस जिसके भी निकट जाना चाहा होते रहा तिरस्कृत
मेरे भलमनसाहत का हृदय रहा सदा ही टूटता
मेरे अपनों ने किया है इस तरह मुझको बहिष्कृत

साथ साथ उठते बैठते अपनत्व का जैसे उपहास हो गया
सारा जीवन मेरा अब तो जैसे खाली गिलास हो गया...

कविता

कचरा बीननेवाली लड़की भागू
वह टी टी नगर के कूढ़ों पर
मैले कुचैले कपड़ों में
कचरा बीनते फिरती है
गँदली-मैली सी सुन्दर लड़की
मन ही मन गुनगुनाया करती है
कोई रंगीला पे्रम गीत
लरजते हैं उसके अधर
किसी लजीली बात पर
साफ करते हुए कचरा
थिरकने लगते है उसके पैर
मन ही मन मुस्कराती है
उज्ज्वल भविष्य का सपना लिए
मिल ही जाती है
कोई न कोई वस्तु पुराने कपड़ों मे
लिपिस्टिक, नैलपॉलिश या आईब्रो
उड़ने लगते है उसके रेतीले ख्वाब कबूतरों की तरह
प्रयास करती है वह
दूर आकाश में उड़ने का
निहारा करती है वह घरों में
झाँक झाँक कर कौतुहल से
टी व्ही सोफा कूलर रंग बी रंग सजावटे
झट से तोड़ लेती है वह
किसी आँगन में खिला गुलाब
जुड़े में खोंसने का करती है नायाब प्रयास ।
आधी अध्ूरी लिपिस्टिक से
रंग लेती है वह
काले काले मटमैले रतनारे होंठ
टूटे हुए शीशे में लगती है निहारने
अपना रंग रुप
और धीरे से लगा लेती है ठुमका ।
मचलती है वह किसी बात पर
देखती है इधर -उघर
निहार ले उसे कोई
वह भी तो सुन्दर लग रही है
छेड़ जाता है जब कोई उसे
बिखर जाता कचरा उसका
उखड़ जाती होंठों की लाली
उसकी गर्द से भर जाता है सारा शहर
टूट जाता उसका सपना
नहीं बन सकती वह
ऐश्वर्या राय सी सुंदर ।
कचरा बीनते बीनते लड़की
गुनगुनाती है मन ही मन
कोई रंगीला पे्रम गीत
किसी लजीली बात पर ।
---शंकर सोनाने

दहेज़ कहानी

दहेज
हालांकि रेल्वे स्टेशन के आसपास भिखारियों की कमी नहीं रहती।जैसे ही रेल्वे स्टेशन के करीब पहुँचते हैं,हमारा सामना तरह.तरह के भिखारियों से होता है।लूले लंगड़े अंधे कोढ़ी बच्चे औरत बूढ़े इत्यादि।रेल्वे स्टेशन के आहाते में ओव्हर ब्रिज पर भीख मांगनेवालों की कतारें दिख जाती है।मटमैले जैसे महिनों से नहीं नहाये हों।चीकट दुर्गन्धयुक्त फटे पुराने चीथड़े कपड़े।किसी की रोने की आवाज़,किसी के कराहने की आवाज़,कोई पुकार.पुकार कर भीख मांगता तो कोई बहुत ही कातर होकर गुहार लगता है।इन्ही भिखारियों के बीच में रेल्वे स्टेशन के ओव्हर ब्रिज पर बैठकर भीख मांगते हुए किशन को शायद चार दशक हो गये।ब्रिज पर भीख मांगने के लिए किशन दादा ने अपना एक निश्चत स्थान बना लिया था।जैसे ही रेल्वे प्लेट फार्म से होकर ऊपर बि्रज पर चढ़ते हैं बिल्कुल सामने ही किशन दादा दिखाई देते हैं।किशन दादा के स्थान पर कोई अन्य भिखारी अतिक्रमण करने की हिम्मत नहीं कर सकता था।अन्य भिखारी किशन दादा से बहुत दूर दूर ही बैठते।उस ब्रिज पर मात्र किशन दादा का ही वर्चस्व रहता था यदि कोई गलती से भी भीख मांगता नज़र आता तो किशन दादा उससे उस दिन की सारी भीख हथिया लेते।उसके भीख मांगने का तरीका भी अन्य भिखारियों की अपेक्षा अलग ही रहता था।अन्य भिखारी उनकी नकल नहीं कर पाते। दाहिना हाथ और बांया पैर वैसे तो बहुत स्वस्थ्य थे लेकिन जब वे भीख मांगने के अपने स्थान पर बैठते तो उन्हे देखकर कोई भी महसूस कर सकता कि वे दाहिने हाथ और बांये पैर से अपाहिज ही है। दाहिना हाथ ढीला कर इस तरह लटकाते कि लगता उनका हाथ वास्तव में पंगु ही है।भीख मांगने की इसी शैली के कारण वे पिछले तीन दशक से भी अधिक समय से इसी तरह से भीख मांग रहे हैं।चलते समय किशन दादा बांये पैर को घसीटकर चलते और हर किसी को दिखाई देता है जैसे वे वास्तव मे अनाहिज है।यह उनक हुनर था।पांच के पंजे को मैले कुचैले कपड़ों से लपेटकर रस्सी से बांध लिया करते।देखनेवाला दाता उन्हे दखकर भावनावश भीख दे ही देता।चलते वक्त उनके चलने की शैली ऐसी होती कि एक पैर घसीटा जा रहा है और एक हाथ निढाल हुआ जा रहा है।देखते ही तरस आ जता किसी को भी।किशन दादा में एक खासियत यह भी थी कि वे थोड़ी बहुत अंगे्रजी के शब्दों का भी उपयोग बोलचाल में कर लिय करते।उनके अन्य साथी के पूछने पर वे यह कह कर टाल देते कि उन्होने यह अंग्रेजी आने जाने वालों से सुनकर सीखी है किन्तु किशन दादा हरि से कोई बात नहीं छिपाते।हरि ओव्हर ब्रिज के नीचे पायदान के पास बैठकर भीखा मांगा करता और अभी किशनदादा से भीख मांगने के गुर सीख रहा है।हरि अक्सर किशनदादा को अपना गुरू मानता और वह किशनदादा के नक्शे कदम पर चलता।एक दिन यों ही हरि ने किशन दादा को छेड़ा।‘कहाँ तक पढ़े हो दादा’‘ ऐसी बात क्यों करता है रे हरि।क्या कोई भिखारी भी पढ़ा लिखा होता है।’‘ नहीं,बात यह तो नहीं है….फिर भी मन में सवाल उठ ही गया है कि दादा कितनी अच्छी अंग्रेजी बोल लेते हैं और हाँ…एक दिन तुम कोई अंग्रेजी अखबार ज़ोर ज़ोर से पढ़ रहे थे।’‘सो तूने कैसे जाना।’‘ जब तुम ज़ोर ज़ोर से पढ़ रहे थे तभी टीटी साहब तुम्हारे पास कुर्सी पर बैठे सुन रहे थे और सुन कर खुश हो रहे थे।दादा तुम्हे याद होगा कि टीटी साहब ज़ोरों से खांस थे और तुम पढ़ते हुए थम गए थे।’ ‘मुझे याद नहीं।’
‘ और टी.टी. साहब ने तुम्हे…सोचकर….हाँ,एक का सिक्का भी बख्शीश में दिया था।’
‘ असल में हरि,मैं नौकरी की तलाश में भटक रहा था।डिग्रियाँ ले लेकर कहाँ.कहाँ नहीं भटका,बता नहीं सकता।पर कहीं नौकरी नहीं मिली।एक दिन देखा एक भिखारी पेड़ के नीचे बैठ भीख के पैसे गिन रहा है।बहुत से रूपये थे उस भिखारी के पास,मैने पूछा तो बताने लगा,ये जो लोग नौकरी करते हैं,हम उनसे कहीं ज्यादा कमा लेते हैं।पढ़ाई के बाद नौकरी नहीं मिल पाती तब मजदूरी करनी होती है और मजदूरी में भी इतना नहीं मिल पाता कि घर का खर्च पूरा हो सकें।शहरों में तो भिखारियों के बड़े.बड़े संघ काम करते हैं और भिखारियों की यूनियन भी है।उस भिखारी ने मुझे भीख मांगकर रूपये कमाने का तरीका सिखा दिया।फिर क्या,तब से ही मैं यह धंधा बराबर करता आ रहा हूँ,लेकिन दुःख है,मैं अपने घर नहीं जा सकता और यही का होकर हर गया। लम्बी सांसs लेते हुए किशन दादा टकटकी लगाये आसमान की ओर देखाने लगे।शायद सोच रहे हो कि हमारे देश में इतनी बेरोजगारी है कि शिक्षित लोगों को भी भीख का धंधा dरना पड़ रहा है।किशन दादा ने लम्बा बीड़ी का कश लिया और आसमान में धुआं छोड़ने लगे ।चांदनी छिटक रही थी।किशन दादा की आंखों से दो बूंद आंसू लुढ़ पड़े। पारों को पढ़ाया लिखाया नहीं।क्या पता पढ़ने के बाद पारो के लिए उचित दूल्हा मिलता है या नहीं।इसकी चिन्ता किशन दादा को शुरू से ही थी।किशन दादा ने पारो का ब्याह अपनी ही जमात में करना उचित समझा और पारो के लिए वर तलाशने की जहमत उसे उठानी नहीं पड़ी। हरि,किशन दादा की आंखों में पहले से था ही।हरि,किशन दादा के साथ भीख मांगने की मदद करता था।हरि के मां.बाप नहीं थे जब से हरि ने होश संभाला है तब से किशन दादा ही हरि के सर्वस्व रहे हैं।इसलिए किशन दादा को हरि से अच्छा वर कोई दिखाई नहीं दिया।बेटी.जमाई दोनों हमेशा नज़रों के सामने रहेंगे।हरि,भीख मांगने के बाद रात को घर लौटते समय किशन दादा को सहारा देकर अंधेरे कोने तक ले आता और ज्यों ही अंधेरे में आ जाते थे,हरि पीछे रह जाता था और किशन दादा सरपट आगे निकल जाते थे।किशनदादा अपनी फुर्तीली चाल के कारण हरि से दस कदम आगे ही चलते थे।किशनदादा ने पारो की शादी की बात हरि से ही चलाई क्योंकि हरि का अपना कोई नहीं था जो वे किशन दादा ही थे। ‘हरि…पारों अब सयानी हो गई।सोचता हूँ पारो का ब्याह हो जाय तो कम से कम आराम से मर सकूँ।‘ ‘काका,काहे को परेशान होते हो।तुम आदेश तो दो,हरि पारों के लिए दूल्हा ढूँढ निलकालेगा।‘ ‘ सच हरि।‘ ‘ तो क्या मैं ठिठोली कर रहा हूँ।” ‘ तो बस…मेरी बात मान ले…” ‘ सो क्या काका… ‘ तू ही पारो से ब्याह कर ले।‘ ‘ मैं…और पारो से….क्या कह रहे हो काका।‘ हरि के चेहरे पर विस्मय के भाव तैर आये। ‘ कहीं तुम मेरा मजाक तो नहीं बना रहे हों।‘ ‘ नहीं रे हरि….बस, तू मान जा…..
‘ ठीक है काका।यदि ऐसी ही बात है तो….लेकिन हाँ,एक बात कहूँ काका…ब्याह में तुम मुझे क्या दोगे।”
‘तुझे क्या चाहिए।‘‘दे सकोगे।‘‘तू मांग कर के तो देख।‘‘तो मांग लूँ।‘‘हाँ..हाँ..झिझकता क्यों है।‘‘दहेज दे सकते हो तो मैं तैयार हो जाऊँगा।‘‘दहेज और मेरे पास।‘‘हाँ..बहुत दहेज नहीं बस थोड़ा सा ही देना होगा।‘‘क्या है मेरे पास,तू ही बता।‘‘मुझे दहेज में और कुछ भी नहीं चाहिए।दे सको तो रेल्वे की वह पुलिया दे दो जहाँ बैठकर तुम भीख मांगते हो।‘‘लेकिन….‘लेकिन वेकिन कुछ नहीं।यदि पारो का ब्याह करना है तो वह पुलिया तो देना ही होगा।‘आखिर किशन दादा को हाँ कहनी ही पड़ती।दूसरे दिन किशन दादा और हरि पुराने कपड़ों को साफ कर पहने और बाज़ार गये।सारा दिन बाजार घूमते रहे।कई दिन बाद दोनों बाजार गए थे पारो के ब्याह के लिए सामान खरीदने।पारो के लिए साड़ी ब्लाउस,सिन्दूर,कागज,पेटीकोट,पतलून और जूते हरि के लिए।पूजा का थोड़ा सा सामान और दो फूलों की माला…बस…। अगले दिन पारो का ब्याह हरि के साथ सारी जमान के सामने हो गया।सभी भिखारियों को किशन दादा ने अच्छे से अच्छा खाना खिलाया।खूब खाये पीये और नाचे गये।किशन दादा ने जमान के सामने ही कहा.. ”आज से मेरी बेटी पारो के ब्याह के मौके पर जमाई हरि को वह रेल्वे का पुलिया दहेज में दे रहा हूँ।यहाँ मैं तीस साल से भीख मांगने का धंधा करता रहा।अब मेरी जगह मेरा जमाई बैठेगा। दूसरे दिन से ही हरि दहेज से प्राप्त रेल्वे ब्रिज पर उसी स्थान पर जा बैठा जहाँ किशन दादा भीख मांगने के लिए बैठा करते थे।टी टी ने किशनदादा की जगह पर दूसरे भिखारी को बैठा देखकर पूछा.. ” तुम यहाँ कैसे बैठे हो,यहाँ तो… ”हाँ,हुजूर मेरे ससुर किशन दादा ने यह पुलिया मुझे शादी में दहेज में दिया है।आज से मैं ही यहाँ बैठकर भीख मांगा करूँगा।‘ टी टी ,हिर का प्रसन्नचित्त चेहरा देख मुस्कराता रह गया।

पगली

पगली
पगली जा रही वह न जाने किधर को।
थोडी नाजुक सी थोडी शरमिली सी
लिबास उघडे से कमर चलकीली सी
शरारत करती सी बिखेरती तबस्सुम सी
गुनगुनाती सी नयन मटकाती सी
चली जा रही वह न जाने किधर को।

पगली जा रही वह न जाने किधर को।
चली जा रही वह न जाने किधर को।।
ताजमहल सा हुस्न खूबसूरत उसका
महताब सा दमकता मेहताबे-रूख उसका
गदराया गदराया उसका वह बदन
महकता हुआ जैसे कहते है सन्दल
बलखाती हुई वह चलती है ऐसे
बहारे-बसन्त की मचले हो जैसे
हंसती है ऐसे जैसे झरनों सा झर झर
मचलती है ऐसे जैसे हवाएं हो सरसर
जा रही जैसे नदिया सागर से मिलनेा

पगली जा रही वह न जाने किधर को।
चली जा रही वह न जाने किधर को।।

बडी बदमिजाज पगली इक लडकी
गजलों को गीतो सा गुनगुनाया है करती
गुल चुनती है वह बागानों में हर रोज
साथ कलियों के खिली जा रही है
पेड-पौधों लताओं बहारों को लिए
मिलन पिया से चली जा रही है
हवाओं संग संग उड जाती है वह
दूर गगन से लौट आती है वह

बडी खूबसूरत पगली इक लडकी
गजलों को गीतों सा गुनगुनाया है करती।।

बडी बदहवास पगली इक लडकी
रोती है न वह कभी हंसती है
राह में खडे-खडे वह हमेशा
राह महबूब की वह तकती है
सजाया करती वह रहगुजर पिया की
कलियॉं गुलों को वह बिखराया करती
धोती है ऑंसुओं से राह महबूब की
रोते-रोते नग्में महबूब के गाया वह करती

बडी खूबसूरत पगली इक लडकी
सजायाकरती वह रहगुजर पिया की।।

खत ले आता कासिद कभी तो
खते-महबूब सीने से लगाया करती
रहगीत कहीं से आ रहा हो कभी तो
संदेश महबूब को पहुँचाय वह करती
चॉंद से हैं पूछती वह चॉंदनी है पूछती
हवाओं परिन्दों और घटाओं से वह पूछती
कोई तो संदेशा मेरे महबूब का बताओ
या संदेशा मेरा लेकर कोई जाओ
ये ऑंसू रो-रोकर पुकारा है करते
पहाडों दरियाओं कहीं पता तो बताओ
आ रहा कब मेरा महबूब परदेश से

बडी खूबसूरत पगली इक लडकी
चली जा रही वह न जाने किधर को।।

बडी खूबसूरत पगली इक लडकी
सियातरे सजाती बहारें सजाती
सजधन के सरे-राह बैठ वह जाती
बागाें से कहती नजारों से कहती
राहों से पूछती रहगिरों से पूछती
आज आनेवाला मेरा जाने-महबूब है
खुदा का वास्ता मैंने दिया उसे है
अल्ला को खबर मौला को खबर है
महबूब मेरा आनेवाला इधर है
खुदारा कोई राह रोके न इधर की

बडी खूबसूरत पगली इक लडकी
सितारे सजाती बहारे सजाती।।

हिंडोले में चॉंद के है वह झूलती
संग महबूब के है वह डोलती
चहचहाती है वह मुस्कराती है वह
रंग बहारें के है वह लुटाती
कूकती वह कोयल सी कभी है
रक्स करती वह मयूरा सी कभी है
पुकारा करती है वह नाम ले के महबूब का
बहारों को सितारों को लुटाया है करती

बडी खूबसूरत पगली इक लडकी
रक्स करती वह मयूरा सी कभी है ।।

दौडती है वह धरती से गगन तक
चीखती है वह सितारों से चमन तक
मचलती है वह सारे जहां में मचलकर
आसमां सिर पर उठाकर चलते चली वह
बडी खूबसूरत पगली इक लडकी
दौडती है वह धरती से गगन तक।।

बिखर-बिखर जाती है काली जुल्फें उसकी
बिफर बिफर कर लोटती है जमीं पर यहॉं से वहॉं तक
जाने कैसी है ये चाहत खुदारा
ख्वाब हसीन जाने है कैसे टूटा
सपना वो टूटा जहॉं सारा लुटा
पिया से मिलन का सिलसिला जो टूटा
पहाड उचे चढी कूद नीचे पडी वह
हादासा यहॉं खतम होता नहीं है
गली के जाने किसी मोड पर कभी तो
कल फिर मिलेगी खडी पगली वह लडकी।

बडी खूबसूरत पगली इक लडकी
चली जा रही थी वह न जाने किधर को।।

हिन्दू खान भाई

हिन्दू खान भाई-
उसे यह पता नहीं कि उसका यह नाम कैसे पड़ा । कोई कहता उसके पिता मुस्लिम थे और माँ हिन्दू तो कोई कहता उसकी माँ मुस्लिम थी और पिता हिन्दू । कोई कोई और कुछ कहता लेकिन जबसे उसने होश संभाला है तब से उसे यह आभास होने लगा है कि वह हिन्दू भी है और मुस्लिम भी है। उसे नहीं पता,वह कब से पाँचों वक्त की नमाज अदा करने लगा है और उसे यह भी नहीं पता कि वह कब से रोज़ सुबह उठकर घर के कोने में प्रतिस्थापित भगवान की प्रतिमा की आरती उतारता रहा है। वह हिन्दुओं के त्यौहारों पर ,चाहे वह गणेश पूजन हो,डोल ग्यारह हो,नवरात्रा में दुर्गा पूजन हो,रामनवमी हो या कृष्ण जन्माष्टमि हो,मनाता रहा है।

वह चारों धाम की यात्रा भी कर आया है और हज़ भी कर आया है। वह एकादशी,नवरात्रा व्रत,सत्यनारायण व्रत,जन्माष्टमी व्रत भी रखता है तो रोजे भी रखता है। वह गीता रामायण पढ़ता है तो कुरान शरीफ भी पढ़ता है।उसे तो बस इतना पता है कि वह हिन्दुओं के सारे पूजा पाठ से लेकर मुस्लिमों की सारी इबादतें भी करता रहा है। मुस्लिमों के सारे त्यौहार मनाता है । मीठी ईद,बकर ईद,शब्बारात से लेकर पीरगाहों तक वह इबादत करने जाता है। वह मन्दिरों में दोंनों वक्त जाता है तो मस्जिदों में भी नमाज अदा करने जाता है। हाँ,लेकिन उसने लिबास में बदलाव न लाते हुए महात्मा गाँधी का अनुसरण करते हुए सादा लिबास पसन्द किया 1

वह अक्सर खादी की धोती और खादी का ही कुर्ता पहनता है। कभी जूता नहीं पहनता बल्कि खादी भण्डार जाकर अपने लिए सारा चप्पलें ले आता है। यही है उसका पहनावा । इसी पहनावे को लेकर मोहल्ले के लोग,दोस्त और साथ में उठने बैठनेवाले उसे हिन्दू खान भाई कहकर सम्बोधित करते है।मित्रों और परिचितों में वह दो तरह से जाना जाता है। हिन्दू उसे हिन्दू भाई से सम्बोधित करते तो मुस्लिम उसे खान भाई से सम्बोधित करते । कोई उससे पूछता है कि उसके माता पिता का नाम क्या है तो वह हंसकर बताता है कि उसकी माता का नाम भारत माता है और पिता का नाम हिमाला है। वह अपना मज़हब भारतीय बताता । वह कहता है जिस देश में हिन्दू मुस्लिम एकता और भाईचारे के साथ रहते है वहाँ हिन्दू और मुस्लिमों में कोई भेद ही नहीं है। यह भेदभाव हिन्दू मुस्लिमों में नहीं है लेकिन इस भेदभाव की खाई नेताओं ने अपने स्वार्थ को लेकर तैयार की है।
हम भारतियों में फूट डालकर राज करने के लिए तैयार की है ताकि हम लोग आपस में लड़ते मरते रहें और ये नेता हम पर राज करते रहे । हमारा शोषण करते रहे ।करीब पच्चीस तीस बरस पहले वह काजी बाबा को एक मेले में मिला था । बाबा बताते हैं ,शहर में कोई मेला लगा था और वह उसी मेले में रोते बिलखते हुए मिला था।पहले तो पुलिस से सहायता ली कि इसके मां बाप का पता लगाकर इसे उनके सुपुर्द कर दें लेंकिन उसे मां बाप का पता नहीं चला । पुलिस उसे अनाथालय भेज रही थी किन्तु काजी बाबा के अनुरोध पर पुलिस ने उसे उन्हें दे दिया । काजी बाबा उसे अपने साथा ले आए । काजी बाबा इस आसमंजस्य में पड़ गए थे कि वह जाने किस मज़हब का है हिन्दू है या मुस्लिम है। उन्होंने इस पचड़े में पड़ने की बजाय उसे दोनों मजहबों की तालीम देने लेगे । उसे कुरानशरीफ से लेकर गीता रामायण तक की शिक्षा दी । इबादत नमाज रोजे से लेकर पूजा पाठ और व्रत उपवास करना भी सिखाया ।
अब की बार ईद और दीपावली साथ साथ आई थी । शायद दीपावली के बाद ईद पड़ी थी । उसने दीपावली और ईद मनाने की तैयारी साथ साथ शुरू कर दी थी । महिने भर पहले से ही वह इस तैयारी में लग गया था । वह जितनी तवज्जो मुस्लिम मज़हब को देता उतनी ही हिन्दू मजहब को दे रहा था ।अभी दो दिन ही त्यौहारों के बाकी थे कि राजनीति के चलते मन्दिर मस्जिद विवाद के बहाने दोनों समुदाय में दंगे का महौल बन गया । दोनों एक दूसरे के रक्त के प्यासे हो गए

उस रोज़ वह घर में ही था । काजी बाबा मस्जिद गए हुए थे। बाहर शोरगुल सुनकर वह बाहर आ गया । देखता है,दरवाज़े की एक ओर दस बीस हिन्दू हथियार लिए खड़े है तो दरवाज़े की दूसरी ओर भी इतने ही मुस्लिम भी हथियार लिए खड़े है। वह समझ नहीं पाया कि इतने सारे लोग हथियार लिए उसके दरवाज़े के सामने इस तरह क्यों खड़े है। वह दोनों ओर देखते ही रह गया । हिन्दु्ओं ने हथियार उठाए और ऊँची आवाज़ में बोले-
” मारो,मारो , बच न पाएं ।”
दूसरी ओर से मुस्लिम भी ऊँची आवाज़ में बोले-
” मारो,मारो , बच न पाएं ।”
हिन्दुओं और मुस्लिमों ने हथियार उठा लिए ।अब तक वह स्थिति समझ चुका था । वह चीख पड़ा-
” किसको मारोगे,मुझको,क्या मैं हिन्दू नहीं हूँ या क्या मैं मुस्लिम नहीं हूँ । बताओ मैं कौन हूँ।”
उसका इस तरह चीखकर प्रश्न करना हिन्दुओं और मुस्लिमों को भारी पड़ रहा था । वे समझ नहीं पा रहे थे कि जिसे वे मारने के लिए यहाँ एकत्र हुए है,वह हिन्दू है या फिर मुस्लिम है। वह फिर चीख पड़ा-
"तुम में जो हिन्दू है वह मुस्लिम समझ कर मुझे मारें और तुममें जो मुस्लिम है वे हिन्दू समझकर मुझे मारें। बताओ तुम किसको मारना चाहते हो । क्या तुम बता सकते हो कि मैं हिन्दू हूँ या मुस्लिम । मैं एक इन्सान हूँ क्या तुम लोग एक इन्सान को मारना चाहते हो,तो मारों,मैं यह खड़ा हूँ ।"
हिन्दू और मुस्लिम समझ नहीं पा रहे थे कि वह उसे क्या समझ कर मारें। हिन्दू या मुस्लिम। उनके हथियार उठे के उठे ही रह गए ।

तलाश है ऐसे लेखक की

मुझे तलाश है ऐसे लेखक की जिसमें इन्सान हो
आज़ादी के बाद हिन्दी साहित्य में आ रहे परिवर्तन में सबसे खास परिवर्तन खेमेबाजी है । शक्तिसम्पन्न और बौद्धिक संवर्ग ने अपने अपने अलग अलग खेमे बना लिए है । इन अलग अलग खेमों में बंटे लेखकों और कवियों की विचारधारा भी अलग अलग ही है । बौद्धिक और शक्तिसम्पन्न लेखकीय समुदाय ने अपने खेमे से पृथक किसी अन्य को लेखक मानने से ही इन्कार कर दिया है। उत्तर आधुनिक लेखक अब तक पूर्णतः आधुनिक नहीं हुए है किन्तु वे सारे के सारे उत्तर औधुनिक का अलाप,अलाप रहे हैं । रचनात्मकता में विचारधारा के सम्मोहन का तड़का लगाया जा रहा है । उत्तर आधुनिक के नाम पर काव्य और गद्य में भी अकाव्यात्मकता एवं अगद्यात्मकता का पुट लगाया जा रहा है । इस तरह की रचनाएं की जा रही है,जिसका सामान्य पाठक वर्ग से कोई सारोकार नहीं है । खेतों में काम करनेवाले,सड़क किनारे काम करनेवाले मजदूर,कारखानों में कार्यरत वर्कर्स अगद्यात्मक और अकाव्यात्मकता को आत्मसात करने में असमर्थ तो है ही साथ ही इस प्रकार की रचनाओं से न तो व्यक्ति को,न परिवार को, न समाज को और ना ही देश को लाभ पहुंचता है। हां,रचनाकार अवश्य ही खेमेबाजी में बाजी मारकर अनावश्यक तौर पर पुरस्कार सम्मान प्राप्त कर ले जाते है । इसका भी कारण है,उत्तर आधुनिक के नाम पर रचनाकार खेमों के ही सम्पादकों और आलोंचकों को खुश करने के लिए लिखते हैं । उत्तर आधुनिकता के नाम पर लिखा जानेवाला साहित्य न तो समाज के और न ही देश के हित में है । मैं यहां किसी की आलोचना या निन्दा नहीं कर रहा और ना ही अपने गाल बजा रहा हूं किन्तु वास्तविकता यही है कि एक शक्तिसम्पन्न वर्ग सामान्य पाठकों के सामने केवल बौद्धिक कचना परोसकर वाह वाही लुटने में संलग्न है ।
भवानी प्रसाद ने लिखा है,रचना इस तरह से लिखी जानी चाहिए,जिस तरह से रचनाकार सरल होता है । रचनाकार कठिन होगा तो रचना भी कठिन होगी और उसका जनता,समाज या देश से प्रत्यक्षतः कोई सरोकार नहीं होगा । आज यही हो रहा है । यही कारण है कि समाज बौद्धिकता से उब कर सिनेमा की ओर जा रहा है । पुस्तकें नहीं बल्कि टीव्ही और सिनेमा का क्रेज बढ़ता जा रहा है ।......------------------.आज स्थिति दयनीय हो गई है। एक खेमे का रचनाकार दूसरे खेमे के रचनाकार को बरदाश्त नहीं करता । इतना ही नहीं प्रसिद्ध रचनाकारों का रवैया असामजिक हो गया है । माना जाता है कि लेखक.रचनाकार संवेदनशील होता है किन्तु यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि बौद्धिक लेखक संवेदनशील नहीं होता । इसे यों भी कहा जा सकता है कि एक अच्छा लेखक उतना अच्छा इन्सान नहीं होता,भले ही एक अच्छा इन्सान अच्छा लेखक न हो । एक अच्छा लेखक भले ही मिल जाए किन्तु वह एक अच्छा इन्सान हो,यह जरूरी नहीं है । एक कोई अवश्य ऐसा लेखक होगा किन्तु उसकी पहुंच उतनी अच्छी नहीं होगी जितनी उसे चाहिए । अच्छे लेखक के साथ अच्छा इन्सान होना बड़े सौभाग्य की बात है । आजकल के लेखक कवि रचनाकार इतने ज्यादा बौद्धिक हो गए है कि वे ज़मीन पर तो चलते ही नहीं है बल्कि वे आसमान में उड़ने लगते है । वे पत्रोत्तर देना अपनी तोहिन समझते हैं ।-------------.मैंने अब तक कई लेखको को पत्र लिखे हैं । उन्हें अपनी पुस्तकें भेजी है,दी है किन्तु दुःख की बात है कि उनमें से अब तक हरिवंशराय बच्चन,विष्णुप्रभाकर,कमलाप्रसाद,विजयबहादरसिंह आदि ने ही पत्रों का जवाब दिया बाकी किसी ने भी नहीं । यहां यह भी कहना उचित होगा कि भले ही उनकी सूची में मैं नहीं हूं । सूची में आने के लिए शायद उनकी शर्तें पूरी न कर पाया हूं । कई लेखक तो ऐसे है कि उनकी तारीफों में बड़े लेखकौं ने जाने कितने कशीदे रच डालें किन्तु उनमें लेखक तो है किन्तु उनमें इन्सान ही नहीं है ।

भोपाल गैस त्रासदी

भोपाल गैस त्रासदी
काली रात
ये कैसा धुआं है
जो निगल रहा है शहर
ये कैसा धुआं है
जिसकी पूंछ शहर के
इस सिरे से उस सिरे तक लम्बी है
ये कैसा धुआं है
जिसका मुंह सिरसा की तरह
इस सिरे से उस सिरे तक खुला है ।
ये कैसा धुआं है
निगल रहा है जो शहर
सिर और पूंछ से लगातार
शहर के बाशिन्दे
समाये जा रहे हैं जहरीले धुंएं के मुंह में
ये शहर धुएं में है या
ये धुआं शहर में है
शहर में धुआं है और धुएं में शहर है
लेकिन यह वाकया कि
धुंऐ ने सारे शहर को निगल डाला है
और शहर निष्प्राण हो गया है
इस जहरीले धुएं के मुख में ।
0
शव यात्रा
इन हाथों ने उठाए है
डेढ़ हज़ार सs ज्यादा शव
और एक ही चिता पर
डेढ हजार शवों को रखा ।
शवों के उदरों से
पास होती मिक गैस
और पास ही मृत पड़ी
सडांध से युक्त दस बारह भैसें
वो रिसती हुई लार शवों की
मेरे वस्त्रों को तर करती रही
आज भी समाई है वह दुर्गंध
शवों की मिक गैस की
पूरा शमशान शवों से भरा हुआ
बच्चे बूढे
औरत लड़कियां
कौन मुस्लिम कौन हिन्दू
कौन सिक्ख कौन ईसाई
इन हाथों ने उठाई है उनकी लाशें
और सभी को एक ही चिता पर
लिटा कर अंतिम संस्कार किया गया
धड़कता रहा मेरा हृदय तेजी से
सप्ताह दो सप्ताह
शवों के चेहरे मंडराते रहे आखों में
वह दुर्दिन अब भी याद है
याद आते ही रो पड़ता है मन
कहता है
अजी हां मारे गए इन्सान..
0
नोट -.मैंने गैस त्रासदी के समय अपने हाथों से लगभग डेढ़ हज़ार से ज्यादा शव उठाएं है और उन्हे चिता पर लिटा कर अन्तिम संस्कार किए है । स्मशान का वह दृश्य आज भी मेरे दिमाग में जस का तस है ।
कृष्णशंकर सोनाने

कृष्ण जन्म

थी मध्य निशा की पुनित बेला,औ´
आच्छादित मेघ श्रृंखला व्यापार
रजनिकर मुख छिपा क्षितिज में
घुप् तम पथ था पारावार ।-1

तिमिर में भी ज्योति पूँज आलोड़ित होता
घनन् घनन् घन घनन् घनन् घन मेखला
पार व्योम से झांकता वह चितवन चकोरा
जाने किसका होगा वह चंचल चपल छोरा ।-2

मलयानिल बयार मधुर घ्राँण रंध सुवासित
कौन है वह जो करता हृदय को वििस्मत
कौन है वह जो होता पुलकित बार बार
कौन है वह जो प्रमुदित होना है चाहता
कौन है वह जो होना चाहता सृजनहार ।-3

ऐसे में निपट कौन मौन अस्तित्व लिए
विहंसता सह कुसुमित सा सुकुमार
तड़-तड़ तोड़ लौह बन्ध मुक्त वह
प्रगट हुआ एक शिशु बीच कारागार ।-4

कोमल लघु पावन चरण धरा धर
विभु नयन सम्मुख हो महा-मनोहर
विहंस पड़ी अधराधर मधु मुस्कान
यही होगा इस युग का महान गान ।-5

कोई कल्पनातीत निशा मध्य कर उजियाला
कर अलौकिक तन-रजनि में था उगनेवाला
उस पराशक्ति का अनुभूतिजन्य था विकास
कर रहा था तम का वह पल क्षण उपहास ।-6

जिस काल खण्ड में लोक लीलामय जनमता
भव धनु वितान उस भू पर विभु का तनता
विधि विधान विविधमय वह कर जाता
वह धरा पर उसी क्षण अवतरित हो जाता ।-7

जिस क्षण सांसारिक माया स्वपन टूटता
महाकण्ठ से बरबस युगल गान गूँज उठता
दिग-दिगन्त तक प्रतिध्वनित हो उठती तान
सकल जगत उल्लासित गा उठता वह गान ।-8

जिस क्षितिज से वह मन्द मन्द मुसकाया
विधि ने रच दी अपनी अद्भूत माया
साधुजनों का करने को वह परित्राण
संकल्परत धर्मध्वजा का होगा अभ्युथान ।-9

अवतरण तब उसका जब नाद ब्रºम गुँजाया
हो गई विमोहित वीणा-वादिनी की माया
झंकार उठी दिशा-दसों औ´अखिल ब्रºमाण्ड
विविध कण्ठ ने आवाहन उसका गाया ।-10

अखिल विश्व प्रमुदित उल्लासित हो झूमा
किंकर-गन्धर्व-अप्सराएं मृदंग झाँझ नृत्य होमा
समूह गान स्तुति लय ताल छन्द युगल हो गाए
व्योम अवनि अम्बर तल अनन्त धरा भी घुमा ।-11

खग-मृग-व्याघ्र जीव-जन्तु मानव हृदय हषाZये
लता कुँज वन नद नाल सरोवर अलसाये
नहीं रूकता निरन्तर अल्हादित होता उल्लास
उसके अधरों पर जगमग जगमग होता उजास ।-12

पराजित होना उसने कभी सीखा नहीं
हारने पर भी सदा गुदगुदाता था रहता
कभी चरण रज प्रक्षालन में पीछे हटा नहीं
होकर अपमानित फिर भी वह था मुस्काता ।-13

निकुँज कुँजवन में लुकता छुपता उसका छलवाना
चपल चंचल चतुर चितचोर का चितराना
भला कौन नहीं चाहेगा ऐसे में भुजबन्ध मिलाना
वृषभानुसुता को मधुर मुरली का सुनाना ।-14

मानवता की खारित उसने गान गीता का गाया
जीवन सारा कर उत्सर्जित फिर भी वह मुस्काया
मेरे कृष्ण तुम तो मेरे प्राणों के हो आधार
आओ तो कर लूँ मैं तुमको जी भर के प्यार ।-15

कविता

कचरा बीनने वाली लड़की : भागू

वह टी टी नगर के कूढ़ों पर
मैले कुचैले कपड़ों में
कचरा बीनते फिरती है
गँदली-मैली सी सुन्दर लड़की
मन ही मन गुनगुनाया करती है
कोई रंगीला पे्रम गीत
लरजते हैं उसके अधर
किसी लजीली बात पर
साफ करते हुए कचरा
थिरकने लगते है उसके पैर
मन ही मन मुस्कराती है
उज्ज्वल भविष्य का सपना लिए
मिल ही जाती है
कोई न कोई वस्तु पुराने कपड़ों मे
लिपिस्टिक, नैलपॉलिश या आईब्रो
उड़ने लगते है उसके रेतीले ख्वाब कबूतरों की तरह
प्रयास करती है वह
दूर आकाश में उड़ने का
निहारा करती है वह घरों में
झाँक झाँक कर कौतुहल से
टी व्ही सोफा कूलर रंग बी रंग सजावटे
झट से तोड़ लेती है वह
किसी आँगन में खिला गुलाब
जुड़े में खोंसने का करती है नायाब प्रयास ।
आधी अध्ूरी लिपिस्टिक से
रंग लेती है वह
काले काले मटमैले रतनारे होंठ
टूटे हुए शीशे में लगती है निहारने
अपना रंग रुप
और धीरे से लगा लेती है ठुमका ।
मचलती है वह किसी बात पर
देखती है इधर -उघर
निहार ले उसे कोई
वह भी तो सुन्दर लग रही है
छेड़ जाता है जब कोई उसे
बिखर जाता कचरा उसका
उखड़ जाती होंठों की लाली
उसकी गर्द से भर जाता है सारा शहर
टूट जाता उसका सपना
नहीं बन सकती वह
ऐश्वर्या राय सी सुन्दर
गुनगुनाती है मन ही मन
कोई रंगीला पे्रम गीत
किसी लजीली बात पर ।
00
माँ

खाना पकाते हुए
मैं अपनी माँ के बारे में
सोचा करता हूँ ।
तुमने कभी
खाना पकाते हुए
माँ के बारे में सोचा है !
अच्छी बात है
माताओं के बारे में सोचना
अपनी अच्छाई उजागर होती है ।
हम कुछ ऐसा हो सकते हैं
पर सोचने में कठिनाई यह है कि
हम ऐसा हो नहीं सकते
होते तो माँ के अतिनिकट होते
और माँ जैसे होते ।
कितने करीब आना होता है माँ के
माँ जैसा होने के लिए
माँ दोनों समय खाना पकाती है
क्या हम भी
माँ के लिए खाना पका सकते हैं
जब उसे हमारी आवश्यकता हो ।
क्या हम भी
माँ के बारे में सोचते हैं
निकट या दूर से ।
0

काकी

काकी बरसों से भूखी थी
और पे्रमचन्द
भोजन परोसना भूल गए थे
भूख तो भूख होती है
चाहे अच्छा खाना मिल जाए या साधारण
भूखे को भोजना मिलना चाहिए ।
जैसे ही सुगन्ध महकती है
काकी की भूख बढ़ जाती है ।
दो इंच की ज़बान मचलती है
पानी आ जाता मुख में
चोरी से खाने का मन होता हे
कभी कभी चोरी से
खाने की घटना घटित हो जाती है
वैसे चोरी से खाने का
मज़ा ही कुछ और होता है
ताकना झाँकना विवशता हो जाती है काकी की
प्रतीक्षा करनी होती है
कोई आकर परोस दे खाना ।
सारे मेहमान उस दिन खाना खाकर चले गए
काकी अपने कमरे में करती रही प्रतीक्षा
बहू बेटे ने सुध ही नहीं ली काकी की
मजबूरन झूठे पत्तलों को टटोल टटोलकर
झूठन खाती रही।
आज भी काकी भूखी है कई घरों में
समय पर खाना मिल जाए तो कभी झूठे पत्तल
टटोलना नहीं पड़ेंगे किसी काकी को।
0

गेट आउट

जब चाहे तब
गेट आउट किया जाता है मुझको
जैसे गुस्से में निकाला जाता है
नौकर को कमरे से ।
बड़ी मिन्नत मनौती के बाद
वे कहते है
चलो ठीक है लेकिन
अपनी औकात में रहा करों
आइन्दा ऐसी गलती नहीं होनी चाहिए ।
अँंगूठे से कुरेदते हुए ज़मीन
दाँतों में दबाएं हुए आँचल
हामी भरनी होती है
तब कहीं जाकर वे भीतर बुला लेते है
शरणार्थियो की तरह सशर्त ।
मेरा कहीं भी वजूद नहीं रहता
ज़रा सी चूँ चपट होने की देर है
बिना किसी मुरव्वत के
गेट आउट की जा सकती हूँ
मेरे ही दम पर चलती है उनकी गृहस्थी
सुबह का नाश्ता
दोपहर का लंच
और रात का खाना
टाइम पर दूध और दवाइयाँ देना
संभव नहीं है मेरे बग़ैर ।
ये जो घर है
महज़ खिड़की दरवाज़े फर्नीचर
बर्तन भाण्डो से नहीं बनता
इसे बनाया जाता है एक अदद औरत से
अपनी सम्पूर्ण आत्मा
ऊँढ़ेल कर
गेट आउट उनका आखिरी दाँव है
तीस दिनों के महिने भर में
उन्तीस दिन गेंट आउट होना पड़ता है
बहुत ही बेइज्जती के साथ
फिर भी उनका मन नहीं मानता ।
झेलना पड़ता है बार बार गेट आउट की जिल्लत
बावजूद इतना सब होने के
गेट इन होती हू
उनको भी
आने वाले समय में
गेट आउट करने का संकल्प लिए ।

कविता

मैने ईज़ाद की कविता

डमरू के डम डम से
बिखर गए शब्द
ब्रह्माण्ड के अण्ड से फूट पड़े स्वर
वीणा के नाद से गूंज उठा नाद
शंकर के नृत्य से तरल हुए भाव
भारती के नयनों से निकल पड़ा विभाव
शिव की जटा से बह निकली सरिता
एकत्र कर सार उपकरण
मैने इजाद की कविता ।
उषा के भाल पर
छिड़क गया सिन्दूर
सूरज की किरणों से
बिखर गया नूर
फूलों से टपक पड़ा
कोमलता का भाव
यौवन की चल पड़ी
चंचल सी नाव
मदमाती इतराती
विहंस पड़ी गर्विता
अम्बर के पास से
मैंने ईजाद की कविता ।
बरस पड़ा रस
नवरंग नवरस में
जीवन गया बस
निर्धन की झोपड़ी में
रिक्त पड़े कक्ष
सीमा पर फौजी है
कर्मठा में दक्ष
ममता के आंचल से
बहा नेह राग
पी के अधरों पर
पे्रममय पराग
कली-कली,पुष्प-पुष्प
भौरा है गाता
सृष्टि के प्रांगण में
मस्त हो जाता
रचडाली शब्दों की
सुन्दर सी सरिता
अभिव्यंजना के रंगों से
मैंने ईजाद की कविता ।
000
भेड़िये कभी छिपते नहीं

दोस्त बनकर
दुश्मन जब
आपस में मिलना शुरू कर दे
करें मित्रों की तरह व्यवहार
लगे रिश्तों में अपनापन ।
दोस्त बनकर
जब दुश्मन
जागरूक हो जाए
पेश आए सावधानी से
मांगने लगे दुहाईयाँ
लगे मिमियाने भेड़ों की तरह।
दोस्त बनकर
जब दुश्मन
उतारने लगे बलैया
तारीफों के लगे बाँंधने पुल
करने लगे मित्रों की बुराइयाँ।
दोस्त बनकर
दुश्मन जब
वर्जनाएं लगे तोड़ने
पहनने लगे जामा सभ्यता का
धतियाने लगे परम्परा
लगे बिचकाने मुँह
दिखाकर अपनापन ।
दोस्त बनकर
जब दुश्मन
चढ़ाने लगे मनौतियाँ
पहनाने लगे माला फूलों की
लगाने लगे मरहम घावों पर
बगल में छिपाए हुए कटारी से
छिलने लगे तलवें
लगे खोजने अर्थ मलतब के ।
दोस्त बनकर
दुश्मन जब
मिलने लगे आपस में लगे
साम्प्रदायिकों सी चलें चालें
सभ्यतमा का दुशाला ओढ़े हुए ।
आज हमारे बीच से ही
कुछ दुश्मन कर रहें होंगे
एक दूसरे के खिलाफ
एक दूसरे के लिए
धिनौना संघर्ष....
दोस्त बनकर
अपनत्व दिखाएं
शेर की खाल में भेड़िए
कभी छिपते नहीं ।
08.07.2008 मंगलवार

कविता

मैने ईज़ाद की कविता

डमरू के डम डम से
बिखर गए शब्द
ब्रह्माण्ड के अण्ड से फूट पड़े स्वर
वीणा के नाद से गूंज उठा नाद
शंकर के नृत्य से तरल हुए भाव
भारती के नयनों से निकल पड़ा विभाव
शिव की जटा से बह निकली सरिता
एकत्र कर सार उपकरण
मैने इजाद की कविता ।
उषा के भाल पर
छिड़क गया सिन्दूर
सूरज की किरणों से
बिखर गया नूर
फूलों से टपक पड़ा
कोमलता का भाव
यौवन की चल पड़ी
चंचल सी नाव
मदमाती इतराती
विहंस पड़ी गर्विता
अम्बर के पास से
मैंने ईजाद की कविता ।
बरस पड़ा रस
नवरंग नवरस में
जीवन गया बस
निर्धन की झोपड़ी में
रिक्त पड़े कक्ष
सीमा पर फौजी है
कर्मठा में दक्ष
ममता के आंचल से
बहा नेह राग
पी के अधरों पर
पे्रममय पराग
कली-कली,पुष्प-पुष्प
भौरा है गाता
सृष्टि के प्रांगण में
मस्त हो जाता
रचडाली शब्दों की
सुन्दर सी सरिता
अभिव्यंजना के रंगों से
मैंने ईजाद की कविता ।
000

भेड़िये कभी छिपते नहीं

दोस्त बनकर
दुश्मन जब
आपस में मिलना शुरू कर दे
करें मित्रों की तरह व्यवहार
लगे रिश्तों में अपनापन ।
दोस्त बनकर
जब दुश्मन
जागरूक हो जाए
पेश आए सावधानी से
मांगने लगे दुहाईयाँ
लगे मिमियाने भेड़ों की तरह।
दोस्त बनकर
जब दुश्मन
उतारने लगे बलैया
तारीफों के लगे बाँंधने पुल
करने लगे मित्रों की बुराइयाँ।
दोस्त बनकर
दुश्मन जब
वर्जनाएं लगे तोड़ने
पहनने लगे जामा सभ्यता का
धतियाने लगे परम्परा
लगे बिचकाने मुँह
दिखाकर अपनापन ।
दोस्त बनकर
जब दुश्मन
चढ़ाने लगे मनौतियाँ
पहनाने लगे माला फूलों की
लगाने लगे मरहम घावों पर
बगल में छिपाए हुए कटारी से
छिलने लगे तलवें
लगे खोजने अर्थ मलतब के ।
दोस्त बनकर
दुश्मन जब
मिलने लगे आपस में लगे
साम्प्रदायिकों सी चलें चालें
सभ्यतमा का दुशाला ओढ़े हुए ।
आज हमारे बीच से ही
कुछ दुश्मन कर रहें होंगे
एक दूसरे के खिलाफ
एक दूसरे के लिए
धिनौना संघर्ष....
दोस्त बनकर
अपनत्व दिखाएं
शेर की खाल में भेड़िए
कभी छिपते नहीं ।
08.07.2008 मंगलवार

कविता

ताजमहल

ताजमहल का ताजमहल होना
सचमुच का ताजमहल होना है
जैसे आगरे का ताजमहल।

ताजमहल यदि सच्चा ताजमहल है
वह प्रेम का मिन्दर होगा
जैसे मैं और उनका प्रेम।

ताजमहल कहते सुनते ही
रोमांचित हो उठता है जिसका तनम न
समझो हो गया है उसे कुछ कुछ
एक और ताजमहल बनाने का रोग।

लोग घरों में ताजमहल नहीं
पे्रम भवन सजा रखते हैं
यादें बनी रहे ताजा उम्रभर
दिलाते हुए याद एक दूजे को।

मैं तेरा शाहजहां ,मुमताजमहल तू मेरी
गाते रहेंगे सुर ताल मिलाकर
यमुना संभाले रखेगी जब तक
पूरनमासी में जगर मगर करता ताजमहल ।

जन्नत है तो कहीं और नहीं
हुस्न है तो कहीं और नहीं
इश्क है तो कहीं और नहीं
जिस्त है तो कहीं और नहीं
ख्वाब है तो कहीं और नहीं
यादें है तो कहीं और नहीं
तसव्वुर है तो कहीं और नहीं
सिर्फ आगरे जाकर देखो यमुना किनारे

नत , हुस्न, इश्क , जिस्त ,ख्वाब
यादे-तसव्वुर एक साथ दिखाई देंगे
जगर मगर करते हुए दुधिया रातो में

ताजमहल का ताजमहल होना ही
सचमुच का प्रेममहल होना है
जैसे आगरे का ताजमहल
जैसे मैं और उनका पे्रम ।
0000......28/06/2007

जगह

अलावा इसके हो क्या सकता है कि
अब तक न बनवा सका
हृदय में उनके ज़रा सी जगह।
उम्र के उस पड़ाव पर होना चाहिए था
जिस पड़ाव पर वे खड़े है
जिस बात पर वे अड़े हैं
चुनने की अकांक्षा लिए हुए कोई फूल
बासा और उजड़ा हुआ बागान
क्या करेंगे सजाकर वे।
कब का हो जाना चाहिए था निर्णय
या कैद हो जाना चाहिए थी उम्र भर की
या खुल्ला छोड़ दिया जाना चाहिए था
बेलगाम भटकने के लिए।
कम से कम बन ही जानी चाहिए थी अब तक जगह
जिससे पुरसुकून हो सकें
कि कैद कर लिया गया है उम्र भर
कि खुल्ला छोड़ दिया गया हूं सांड की तरह ।
फिर करना चाहता हूं निवेदन
अब तो खुला छोड़ दो दरवाज़ा
आ जा सकूं निस दिन चाहे जब
बनवा सकूं एक छोटी सी जगह
हृदय के उनके किसी कोने में।

00 01.07.2007...1:30 बजे

जन्म दिन का गणित

माँ ने बताया
जिस दिन तू पैदा हुआ
उस दिन पूनम की सुबह थी
सारा दिन रिमझिम रिमझिम पानी बरस रहा था
गाय,भैंस और बकरियाँ
चरने चली गई थी जंगल
स्कूल की छुटि्टयाँ खत्म हो गई थी
पड़ौसी की लड़की
स्कूल जाने लग गई थी
और हाँ ,जिस साल तू पैदा हुआ था
उसी साल पं.जवाहरलाल नेहरू आये थे
उद्घाटन करने कारखाने का
लग गई थी तेरी नाक
हाथों में उनके, और
मुस्करा दिये थे पंडित नेहरू ।
पूरे पचपनवे बरस के दिन
जब ताजमहल को
सातवे अजूबे में
शामिल करने की मूहिम चल रही थी
और निर्णय होना शेष रह गया था
सप्ताह का सातवां दिन था
महिने की सातवीं तारीख थी
साल का सातवां महिना था
सदी का सातवां वर्ष था
यानी सभी सात सात सात।
तब मैं अकेला एकान्त में बैठा
लिख रहा हूँ जन्म दिन के गणित की कविता
न केक न केण्डिल न मिठाई
न ही कोई संगी-साथी
और न ही कोई हेप्पी बर्थ डे टू यू ।