पूर्वाग्रह से ग्रसित कौन
अक्सर यह अनुभव में आया है कि जब किसी से विचार नहीं मिले तो माना जाता है कि वह पूर्वाग्रह से ग्रसित है । पूर्वाग्रह से कोई भी ग्रसित हो सकता है । चाहे विचार मिले ना मिले । यह भी जरूरी नहीं कि जो पूर्वाग्रह से ग्रसित है,वह अच्छा व्यक्ति है भी या नहीं । अच्छे से अच्छा व्यक्ति पूर्वाग्रह से ग्रसित पाया जाता है । चाहे वह आपके हमारे विचारों से सहमत हो या न हो । लेकिन इधर उन बुद्धिजीवियों को पुर्वाग्रह से ग्रसित पाया गया,जो परिवार,समाज,देश में ही नहीं बल्कि देश के बाहर भी प्रसिद्ध है । जो ऐसा कार्य करते है,जिनके जिन्दा रहने या न रहने पर भी इतिहास लिख लेते है । इनमें प्रमुख है साहित्यकार । जी हां,साहित्यकार । साहित्यकार सबसे ज्यादा पूर्वाग्रह से ग्रसित पाया जाता है । वह अपने को ठीक उसी तरह समेटना चाहता है जिस तरह कछुआ स्वयं को समेट लेता है । वह केवल अपनी बिरादरी में ही सिमट कर रह जाता है । वह अपने और अपने बिरादरी के अलावा किसी अन्य को कुछ भी नहीं समझता या नहीं मानता । यह जरूरी नहीं कि एक अच्छा साहित्यकार एक अच्छा इन्सान हो और यह भी जरूरी नहीं कि एक अच्छा इन्सान एक अच्छा साहित्यकार हो । साहित्यकार होना या इन्सान होना,दोनों अलग अलग मायने रखता है किन्तु एक अच्छे साहित्यकार को सबसे पहले एक अच्छा इन्सान होना जरूरी है । 99.99 प्रतिशत साहित्यकार अच्छे इन्सान नहीं होते बल्कि मात्र 0.01 प्रतिशत साहित्यकार अच्छे इन्सान देखने में आए है ।
मेरे अनुभव में व्यक्तिगततौर पर स्व.हरिवंशराय बच्चन,स्व.विष्णुप्रभाकर,सर्वश्री चन्द्रकान्त देवताले,प्रो कमला प्रसाद,पूर्णचन्द्र रथ,राजेन्द्र शर्मा,अक्षय कुमार जैन ]विजय बहादुर सिंह जैसे साहित्यकार बहुत अच्छे व्यक्ति होना पाए गए है । ऐसा नहीं कि अन्य साहित्यकारों से मैं असहमत हूं बल्कि मुझे ऐसा लगता है अन्य साहित्यकार बन्धु मेरे विचारों से सहमत नहीं है ।
प्रो.कमला प्रसाद कहते हैं कि केवल विचारों की असहमति के ही कारण साहित्यकार खेमों में और व्यक्तिगततौर पर बंटे है ।
वस्तु विचारों की असहमति के कारण ही हमारे देश में अनेकों साहित्यिक खेंमें बने है और अनेक विचारवादी पैदा हुए है । कहीं सहमति तो कहीं असहमति का माहौल बना हुआ है ।
बावजूद इसके साहित्यकारों में खेमों के अलावा भी व्यक्तिगत दुराग्रह पूर्वाग्रह का रोग लगा हुआ है । जैसे मेरे अनुभव में आया है कि साहित्यकार अपने विचारधारा के साहित्यकार के अलावा अन्य किसी से कोई व्यवहार नहीं रखता । न तो वह पत्र का जवाब देता है और न अपनी ओर से चर्चा के लिए पहल करता है ।
ऐसे कई साहित्यकार है जो मेरे पत्रों या ईमेल या एस एम एस का जवाब देना पसन्द ही नहीं करत । इनमें ज्यादातर सम्पादकगण भी शामिल है ।
आश्चर्य तो यहां तक होता है कि जब कभी ये साहित्यकार या सम्पादक महोदय से आमना सामना हो जाए तो बड़ी आसानी से मुंह मोड लेते है या ऐसा दिखावा करते है जैसे वे हमें जानते ही नहीं ।
भोपाल में ही ऐसे साहित्यकार और सम्पादक गण है जो राष्टीयस्तर पर प्रसिद्ध है और जब कभी उनसे आमना सामना होता है तो ऐसा व्यवहार करते है जैसे वे हमें जानते ही नहीं है । मैं उनका नाम लेना नहीं चाहूंगा किन्तु वे स्वयं इसे पढ़कर समझ जाएंगे ।
तो बन्धुओं , तआज्जुब की बात नहीं होने चाहिए क्योंकि जब तक साहित्यकार अच्छा इन्सान नहीं होता,वह साहित्यकार तो कहलाएगा ही किन्तु एक अच्छा इन्सान जाना नहीं जाएगा ।
एक बहुत बड़े आई ए एस अधिकारी का पिछले दिनों इन्तकाल हुआ । हालांकि वह अधिकारी एक साहित्यकार थे किन्तु वे एक बहुत खूंसट और बदमिजाज इन्सान भी थे । उन्हें अच्छे साहित्यकार के नाम से जाना तो जाएगा किन्तु एक बदमिजाज और खूंसट अधिकारी की छवि बरकरार रहेगी ।
इसलिए एक अच्छा साहित्यकार होना जितना जरूरी है उससे कहीं ज्यादा जरूरी है एक अच्छा इन्सान होना ।
गुरुवार, 17 जून 2010
एक अच्छा इन्सान
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