मंगलवार, 13 मार्च 2012

हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद-------कहानी --कृष्णशंकर सोनाने

अभी मैं नींद से जागा ही था । बाहर शोर हो रहा था । स्कूल के विद्यार्थी नारे लगा रहे थे..‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’ मेरी पलकों में नींद का खुमार था लेकिन नारों की ऊँची आवाज़ें बढ़ती जा रही थी । मैंने दोबारा बिस्तर में लेटने की अपेक्षा उठ जाना मुनासिब समझा । मैं उठ बैठा । खिड़की से झाँक कर देखा । स्कूल के विद्यार्थी तिरंगा लिए ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’ के नारे लगा रहे थे । शायद रेली लम्बी थी । लगभग आधे घण्टे के बाद रेली खत्म हुई । धीरे-धीरे सरकते हुए रेली दूर तक जाती दिखाई दी । अब तक नींद का खुमार उतर चुका था ।
नित्यक्रिया से फुरसत हो मै तैयार होकर बाहर निकला । सोचा,चलो मौसम का मिज़ाज देख लिया जाय । जगह-जगह तिरंगे लहरा रहे थे । तख्तियों और बेनरों पर ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’ के नारे लिखे हुए थे । मकानों ,छज्जों ,बंगलों,सरकारी-ग़ैर सरकारी दफ्तरों ,पेड़ों,पुलियाओं और बसों पर ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’ के नारे यहाँ-वहाँ लटके दिखाई दे रहे थे । जिस भी ओर देखता हूँ उसी ओर ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’ दिखाई दे रहा है । सुनाई दे रहा है । मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मेरे चारो ओर ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’ का एक बड़ा सा जाल बिछ गया है । यह भी हो सकता है कि शायद मेरे कान बज रहे हो लेकिन हाँ,दो बड़े-बड़े बेलून जिस पर ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’ लिखा हुआ था,आसमान में तैर रहे थे । मैं दूसरी ओर की गली में गया फिर और दूसरी गली में गया । यहाँ तक कि मैं दूसरी ओर की काॅलोनी में भी गया,वहाँ भी ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !’’ नज़र आ रहा था । मैं तो सकते में आ गया । सोचने लगा,यह हमारे देश को हो क्या गया है ?
‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’
‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’
‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’

चैराहे की चाय की दुकान पर जा बैठा । रेडियो पर ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’ का कोई कोरस गीत बज रहा था । चायवाले ने कहा,-
‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! ’’
‘‘............ जि़न्दाबाद ! ’’
‘‘केवल जि़न्दाबाद से काम नहीं चलेगा सर जी, हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद कहें ।’’
‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !’’ मैंने हंसकर कहा ।
‘‘ हाँ...अब ठीक कहा ।’’ चाय का गिलास रखते हुए वह बोला ।
मैं चाय की चुस्की लेने लगा ।
‘‘ये रेली आज क्यों निकली ?’’ मैंने चायवाले से पूछा
‘‘राजधानी से कोई नेता-वेता आए हुए हैं । ये रेली....’’
वह बोलते हुए रूका फिर बोला,-
‘‘ये नेता लोग है न सर जी... जाने क्या-क्या करते रहते हैं ? यह प्रजातंत्र है या नेतातंत्र है ? कुछ समझ नहीं आता । ये नेता जो करें सो कम है । वो ऐसा है न सर जी कि.....चलो जाने दो फिर भी मैं तो कहता हूँ ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !’’
वह फिर चाय बनाने में व्यस्त हो गया । शायद उसे कोई रूची नहीं होगी । मैंने भी रूची लेना मुनासिब नहीं समझा । इसलिए अपनी राह पकड़ ली ।
‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद...’’
‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद...’’
के नारे मेरे ज़हन में गूँजने लगे। आज़ादी के साठ वर्ष बाद आज ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद...’’ के नारे एक मंत्रीजी के स्वागत में लगाए जा रहे हैं। यह मेरी समझ से बाहर लग रहा था । दिमाग में अजीब ढंग के खयालात उठने लगे । सहसा लगा,मेरे कानों में आवाज आई,-
‘‘मंत्रीजी मुर्दाबाद...मंत्रीजी मुर्दाबाद...’’
‘‘नहीं ..नहीं..मंत्रीजी भी जिन्दाबाद..’’
‘‘जिन्दाबाद क्यों होना चाहिए । उन्होंने देश को आज़ाद कराया है क्या ?’’
‘‘नहीं तो...’’
‘‘तो फिर मंत्रजी मुर्दाबाद क्यों नहीं ..’’
‘‘.चाहे मुर्दाबाद कहो या जिन्दाबाद कहो । दोनों में ही आबाद लब्ज का इस्तेमाल हो रहा है ।’’
‘‘तो...’’
‘‘तो क्या दोनों ही आबाद होते ही है । मंत्रीजी की आबादी दोनों तरफ है । उन्हें कौन सा फर्क पड़ता है ।’’
‘‘अभी हिन्दुस्तान पूरी तरह से आज़ाद नहीं है । अभी कश्मीर को भी आज़ाद होना बाकी है ।’’
‘‘तो चलो,हम कश्मीर को आधा आज़ाद कर देते हैं ।’’
‘‘हमें तो पूरी तरह से आज़ाद कश्मीर कहना चाहिए ।’’
‘‘आधे से काम नहीं चलेगा....’’
‘‘जिन्दाबाद..आबाद..जिन्दाबाद ..कश्मीर जिन्दाबाद ’’
‘‘हाँ..अब ठीक कहा आपने । कश्मीर आज़ाद हो तो पूरा देश आज़ाद होगा ही ।’’
‘‘केवल नारे लगाने से कुछ नहीं होगा । कुर्बानी देनी होगी । ’’
‘‘कुर्बानी हम क्यों दे । कुर्बानी के लिए जनता है । सैनिक है । जवान है । हम तो आज़ादी का लुत्फ उठानेवाले हैं। यही हमारा धर्म भी है ।’’
‘‘ तो तुम कायर हो ...तमाशा देखनेवाले ।’’
‘‘नहीं..आज़ादी का जश्न हम ही तो मनाएंगे और हम भी आज़ाद रहेंगे । कोई क्यों रहे ?’’
‘‘आज़ादी नेताओं-मंत्रियों का जन्मसिद्ध अधिकार है । जनता जाए भाड़ में ।’’
‘‘कुर्बानी कोई और दे ,आज़ादी का लुत्फ कोई और उठाए ।’’
‘‘यही सिद्धान्त है नेतातंत्र और मंत्रीतंत्र का।’’
दिमाग में एक झटका सा लगा । जाने क्या-क्या खयालात ज़हन में उठा करते हैं । यह इन्सान का दिमाग भी क्या चीज़ है ? देश के जवान और देशवासी यदि कुर्बानी नहीं देते तो यह नेता और मंत्री क्या खाक हुकूमत चला सकते। राज करते हैं ये मंत्री हम जनता पर और एक हम है कि उनकी जी हुजूरी में लगे रहते हैं । होना तो यह चाहिए कि इन नेताओं और मंत्रियों ने जनता की सेवा करना चाहिए । लेकिन नहीं, ये ऐसा क्यों करेंगे ? सच्ची आज़ादी तो इन्हीं की लगती है,हमारी नहीं ।
‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद...’’ का नारा सामने वाले पेड़ पर उल्टा लटक रहा है,लेकिन वह ज्यादा ऊँचाई पर होने के कारण हाथ पहुँच नहीं पा रहा है । तभी ज़ोरों से आँधी का झोंका आया और साथ में लाया दो-चार ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद...’’ के उड़ते हुए झण्डे,जो इधर-उधर बिखरने लगे । मैंने उन्हें बटोरने की कोशिश की किन्तु तेज आँधी उन्हें उड़ा ले गई । थोड़े ही क्षण में ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद...’’के नारे गन्दे नाले में डूबकियाँ लगाने लगे । वाह ! क्या खूब इज्जत है इन ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद...’’की । क्या यही हमारी आज़ादी की इज्जत है ? मुझे हमारी कौम पर फक्र होने के बजाय उन पर लानत भेजना अधिक मुनासिब लग रहा है । हमारी कौमें क्या इसी तरह आज़ादी को संभालेगी ?
क्या देखता हूँ कि कुछ लोगों का झुण्ड एक आदमी के पीछे ‘‘मारो.मारो’’करते हुए दौड़ा चला जा रहा हैं । सभी के हाथो में कोई न कोई हथियार है । आदमी ‘‘बचाओ.बचाओ’’चिल्लाते हुए भागा जा रहा है । थोड़ी ही दूरी पर भीड़ उस आदमी को घेर लेती है । उसे इतना पीटती है कि वह अधमरा हो जाता है । तब उत्तेजित भीड़ उस पर कुछ पानी जैसा तरह डालती है और आग लगा देती है । समझते हुए देर न लगी किन्तु उत्तेजित भीड़ को समझाना या किसी तरह नियंत्रित करना मेरे लिए आसान नहीं था । जब वह जलने लगा,भीड़ आनन्दोत्सव मनाती हुई,वहाँ से भाग निकली ।
देखते ही देखते मोहल्ले में तनाव फैल गया । घरों और दुकानों में आगजनी होने लगी । मोहल्ले में खून-खराबा होने लगा । सेना का पहरा बैठ गया । देखते ही गोली मारने के आदेश हो गए । दो दिनों तक मोहल्ला जलता रहा । इन हादसों के दौरान कोई नेता या मंत्री जनता के बीच नहीं आया और न ही किसी ने यह खून-खराबा रोकने की कोशिश की । यह भी जानने की कोशिश नहीं की कि कितने लोग आगजनी और खून-खराबे के शिकार हुए ? पूरे एक महिने तक मोहल्ले में खामौशी छाई रही । मैं भी छुप-छुपाकर बाहर निकलता रहा और मोहल्ले भर का जायजा लेते रहा । दो महिने के बाद सुकून मिल सका । जब पूरी तरह से शान्ति छा गई तब सत्ताधारी नेता और मंत्री जले पर मरहम लगाने आए ।
‘‘हम जानते हैं यह सब ठीक नहीं हुआ। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है । बावजूद सरकार आपके साथ है और आपको न्याय मिलेगा ।’’
‘‘क्या खाक न्याय मिलेगा ।’’
‘‘हम आपको न्याय दिलाकर रहेंगे ।’’
‘‘हमारे अज़ीजों को जीला दो तो हम मानेंगे कि आपने न्याय किया है ।’’
‘‘सुनो , जो इस दुनिया में नहीं है उसे वापस नहीं लाया जा सकता किन्तु जो है उसकी रक्षा की जा सकती है। वह हम करेंगे ।’’
‘‘तुम्हारा कोई अपना मरा की नहीं मंत्रीजी और नेता जी । नहीं ना....जब तुम्हारा कोई मरेगा,तब तुम्हारी आँखे खुलेगी । अभी नहीं । इस समय तो तुम्हारी आँखों पर सियासत की पटट्ी चढी हुई है।’’
‘‘तुम्हारे जिगर का टुकड़ा कटेगा तब तुम्हें पता चलेगा मंत्रीजी ।’’
‘‘तुम रण्डवे बनोगे तब तुम्हारी नींद भाग जाएगी नेताजी ।’’
‘‘अरे,हमें तो यह लगता है कि यह सब खून-खराबा और आगजनी ये ही नेता और मंत्री लोग कराते होगे । जनता को क्या आ पड़ी यह सब करने की । तभी तो यह हमारे ज़ख्मों पर मरहम लगाने आए है । वोट की राजनीति है यह सब ।’’
जितना मुँह उतनी बातें होती है और यह सब हुआ ।
’’ना ही नेता जी और ना ही मंत्री जी कुछ करते । सब के सब रोटियाँ सेंकने की फिराक में लगे रहते हैं।’’
भीड़ धीरे-धीरे बिखर गई । गाल बजाते हुए मंत्रीजी और उनके चेले चपाटी रह गए । मंत्रीजी अपने शागिर्दों से बोले,-
‘‘ऐसे ही रहा तो हमारी पार्टी को वोट कौन देगा ?’’शागिर्द,मंत्रीजी का चेहरा देखते रह गए या यों कहें कि बगलें झांकने लगे । मंच पर मंत्रीजी थे और सामने खाली मैदान पड़ा रहा ।
मैं वहाँ से चलता बना । मंत्रीजी की सभा में मेरा क्या काम ? लेकिन नहीं,सामने से दौड़ते हुए गिरधारीलाल चले आ रहे थे । बहुत हाँफ रहे थे । मैंने पूछा,-
‘‘इतनी जल्दी में कहाँ चले जा रहे हो गिरधारी भाई ?’’
‘‘मंत्रीजी से मिलने के लिए । आज उन्होंने मेरा काम करने का वादा जो किया है ।’’
‘‘काम ? कैसा काम ? कैसा वादा ?’’
‘‘अरे वही ट्रान्सफर का वादा ।’’
‘‘लेकिन आप तो यह ब्रिफकेस लिए जा रहे हैं ।’’
‘‘यह ब्रिफकेस ही तो उन्हें देना होगा,तब ही तो ट्रान्सफर होगा न भैया ।’’
‘‘मैं समझा नहीं ।’’
‘‘आजकल बिना लिए दिए कोई काम होता है क्या,तुम ही बताओ ? मंत्रीजी कह रहे थे,उन्हें यह नहीं चाहिए । यह तो पार्टी के लिए मात्र चन्दा है,चन्दा ।’’
‘‘पार्टी के नाम चन्दा है ।’’
सुनकर मैं सकते में आ गया । समझने में देर न लगी । गिरधारी का ट्रान्सफर तब ही होगा,जब वे माननीय मंत्रीजी को यह भरा हुआ ब्रिफकेस देंगे । गिरधारी फिर बोले,-
‘‘अच्छा चलता हूँ । कहीं ऐसा न हो कि देर हो जाए ।’’
गिरधारी जी तेजी से उसी ओर चल दिए जिस ओर मंत्रीजी अपने शागिर्दों के साथ रूख्सत कर रहे थे । मैं खड़ा-खड़ा देखता रह गया ।
पिछले चार महिने से पिताजी का स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण वे पेंशन लेने नहीं जा सके । उन्हें अन्तरिम पेंशन मिल रही थी । बाकी पेंशन मिलना अभी बाकी था । मैं ठहरा बेरोजगार । सारा दिन आवारागर्दी करते रहने के सिवाय कोई चारा नहीं था । इधर शहर और मोहल्ले में हुई घटना से मैं अब तक उबर नहीं पा रहा था । ज़हन में हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद के नारे गूँजने रहे ।
सुबह से यों ही इस गली से उस गली गटरमस्ती करते हुए मैं दस बजे घर जा पहुँचा । सोचते हुए बरामदे में ही ठिठक गया । दोबारा याद आया,आज मुझे पिताजी के पेंशन के सिलसिले में पेंशन कार्यालय जाना होगा । आज भी गुर्जर बाबू बहाने बनाएंगे । जाने क्या चाहते हैं गुर्जर बाबू । सरकारी कार्यालयों में कामकाज बहुत धीमी गति से चलता है । ऐसा लगता है,ये सरकारी कार्यालय नहीं है बल्कि किसी ऐजेण्ट की दुकान है । यहाँ सुनवाई कम होती है और फजीहत ज्यादा होती है ।

मेरे पिता को सरकारी नौकरी से रिटायर हुए कुछ ही महिने ही हुए हैं। पेंशन कार्यालय से अभी तक पूरी पेंशन नहीं बन पाई है। पिछले दो सप्ताह से पेंशन कार्यालय के चक्कर लगा रहा हूँ। आज भी पेंशन कार्यालय जाना है । आटो से सीधे पेंशन कार्यालय पहुँचा । गुर्जर बाबू के पास भीड़ लगी थी । मैं कुछ क्षण तक उनके सामने खड़ा रहा । उन्होंने मेरी ओर देखा तक नहीं । मेरी तरह और लोग भी उनके सामने खड़े थे । वे एक-एक करके वापस चले गए,तब मैं करबद्ध होकर बोला,-
‘‘ गुर्जर बाबू ! नमस्ते सरजी ।’’
‘‘नमस्ते ! कहिए ..’’
‘‘मेरे पिता श्री राधेश्याम जी का पेंशन प्रकरण....’’
‘‘अच्छा-अच्छा श्री राधेश्याम जी ! उनका पी पी ओ तो अभी आया नहीं ।’’
‘‘पी पी ओ भेज चुके हैं ।’’
‘‘नहीं..नहीं.. नहीं आया । पी पी ओ के आने पर ही फाइल बनेगी ।’’
‘‘सर जी !’’
‘‘पी पी ओ आया होता तो अब तक फाइन बन गई होती । पीपीओ आ जाने दो ।’’
‘‘ऐसा है सर जी ! उनके कार्यालय ने बताया कि पीपीओ एक महिने पहले भेज चुके हैं ।’’
‘‘ऐसा है भई !...ठीक है । आप कल आइए...फिर देखते हैं क्या हो सकता है ?’’
‘‘ कल ? क्यों ? आज क्यों नहीं ?’’
‘‘आज टेम नहीं है । राधेश्यामजी का पीपीओ यदि आया है तो ढूँढना पड़ेगा न और यदि आया होगा तो...अच्छा, अभी बैठिए । देखता हूँ क्या हो सकता है ?’’
गुर्जर बाबू के कहने पर मैं बाहर मेंच पर जा बैठा । दोपहर का समय रहा होगा । मैं दो घण्टे बाहर बैठे रहा । लंच के बाद जैसे गुर्जर बाबू को अचानक याद आ गया हो । बोले,-
‘‘अरे तुम अभी तक बैठे हो । चलो,आपका काम हो जाएगा लेकिन उसके लिए कुछ खर्चा करना होगा । ऐसा है दोस्त कि साहब को भी देना पड़ता है ।’’
मैं उसका चेहरा देखने लगा तो वह फिर बोला,-
‘‘नहीं..तो फिर कल आइएगा ।’’
वह जाने लगा । मैं स्तब्ध सा गुर्जर को जाते देखते रहा । अचानक रूककर मैंने गुर्जर बाबू को रोक लिया,-
‘‘पहले ही बता दिया होता तो इतना वक़्त जाया नहीं जाता ।’’
‘‘ अरे ! यह कोई कहने की बात है । यह तो आपको समझना चाहिए था । आप लोग तो ऐसे ही चले आते हो,जैसे सारा काम अभी हो ही जाएगा ।’’
‘‘सर जी ! नाराज नहीं होइएगा । ठीक है । रूको...अच्छा . यह कुछ है मेरे पास इसे रख लो । कुछ कम हो तो बताइए ।’’
‘‘ठीक है । ठीक है । इतना ठीक है । यह पहले की कर देते तो अब तो काम हो जाता । अच्छा कोई बात नहीं । अब आपका काम हो जाएगा । आप कल आ जाइएगा । पूरा काम हो जाएगा ।’’
गुर्जर सर के चेहरे पर मधुर मुस्कान थिरक गई । दो दिन के भीतर ही शेष रूकी पंेशन और एरियर्स की रकम भुगतान करने के आदेश जारी हो गए। पेंशन कार्यालय के बाहर होर्डिंग पर बड़े-बड़े अक्षर चीख रहे थे..‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’

थोड़ी राहत की सांस ली । यह सोचकर कि ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’ बोलकर ही सारे काम कराने होंगें । पेंशन कार्यालय के बाहर निकला । जेब में मात्र सौ रूपए के दो नोट बाकी बचे थे । आटो से जाने का सोचा फिर मन में आया,सिटी बस से ही जाना ठीक होगा ।
बस स्टाप पर बीस-बाइस बरस की उम्र का एक लड़का भीख मांग रहा था । वह एक पैर से घसीटते हुए चल रहा था । उसे देख हृदय में दया आ गई । मेरे पास आकर उसने हाथ पसारा,बोला,-
‘‘बाबूजी ! भगवान आपका भला करें । दो-एक रूपया दे दो । अपाहिज हूँ ।’’
उसके चेहरे पर उदासी के भाव देख मेरा हृदय पसीज़ गया । मैं बोला,-
‘‘भई मेरे पास खुले पैसे नहीं है । एक सौ का नोट है ।’’
‘‘खुले हो जाएंगे बाबूजी । लाइए मैं दे देता हूँ ।’’
उसने अपनी पेंट की जेब में हाथ डाला । दोनों हाथों भरकर उसने इतनी सारी चिल्लर निकाली कि मैं देखते रह गया । मैंने पूछा,-
‘‘इतनी सारी चिल्लर ?’’
‘‘ये तो कुछ भी नहीं बाबू जी ..इससे भी ज्यादा चिल्लर आ जाती है ।’’
‘‘इतनी चिल्लर तुम्हारे पास कहाँ से आती है ?’’
‘‘दिन भर में इतनी भीख मिल ही जाती है ।’’
‘‘और तुम्हारा यह पैर.....!’’
वह हंसते हुए तन कर सीधा खड़ा हो गया,बोला,-
‘‘पैर तो बिल्कुल ठीक है । यह तो हमारा धन्धा है बाबू जी । यदि हम ऐसा न करें तो भूखे मर जाएंगे । कोई भीख ही नहीं देगा ।’’
उसने जल्दी-जल्दी ढ़ेर सारी चिल्लर निकालकर मेरे हाथ पर धर दी और जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी मेरे हाथ से एक सौ का नोट लेकर चम्पत हो गया। मैं सम्मोहित सा उसे देखते रहा । मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं था । मैं जाने कब बड़बड़ा उठा,पता ही नहीं लेकिन पास ही खड़ा राहगीर बोला,-
‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! बाबूजी ! ये लोग इसी तरह लोगों को ईमोशनल बनाकर लुट लेते हैं । आपका क्या गया बाबू जी ! ज़रा अपनी जेब तो देखो ।’’
मैंने जेब टटोली । मेरे होश उड़ गए । उसने जो चिल्लर दी थी,वह मात्र अस्सी रूपये की थी साथ ही जो एक सौ रूपये का नोट का वह नदारत था । मैं माथा पीटकर रह गया । हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !! का नारा मेरे मस्तिष्क में गूँज उठा ।
‘‘ अरे मैं तो लुट गया ।’’
‘‘ ये तो इनका रोज़ का धन्धा है ।’’
‘‘इसी को कहते हैं ईमोशनल लूट ।’’
मैं लुट-लुटाया पैदल ही चल पड़ा । शायद दफ्तर छूटने का वक़्त होगा । सड़क पर भीड़ बढ़ती जा रही थी । मेरे लिए पैदल चलना अब लाजमी था । आगे चैराहा जाम था । पता लगा कि चैराहे पर किसी मंत्री का भाषण हो रहा है । लेकिन मेरे कानों में एक ही आवाज़ गूँज रही है..‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’ यह कैसा जिन्दाबाद जो देश को न तो जिन्दा रख रहा है न आबाद कर रहा है । सैकड़ों सवालात मेरे ज़हन में उठने लगे ।
कुछ पुलिसकर्मी किसी मुजरिम को हथकड़ी पहनाए ले जा रहे हैं । उन्हें देख मैं ज़रा ठिठका फिर चल पड़ा । मंत्रीजी भाषण दे रहे हैं । पुलिस भी भीड़ देखकर रूक गई । बीच-बीच में हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद के नारे लग रहे हैं । मंत्रीजी जाने क्या कह रहे थे । भीड़ में समझ नहीं आ रहा था । मैं भीड़ में शामिल हो गया । पुलिस मुजरिम को लेकर खड़ी रही । मंत्रीजी जनता को सम्बोधित कर रहे हैं । कह रहे हैं,-
‘‘आज सद्भावना दिवस है । आज के दिन राजिव गाँधी का जन्म दिवस बनाया जाता है । वे देश में सद्भावना के प्रतीक रूप में माने जाते हैं । हम सब मिलकर आज सद्भावना दिवस के इस अवसर प्रतिज्ञा लें । पहले मैं कहूँगा तत्पश्चात आप सब दोहराएंगे ।’’
मंत्रीजी कुछ क्षण तक चुप रहे । भीड़ में खामौशी छा गई । पुलिस और मुजरिम भी तटस्थ खड़े रहे । मंत्रीजी खखारे और प्रतिज्ञा पढ़ने लगे,-
‘‘मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं जाति,सम्प्रदाय और धर्म अथवा भाषा का भेदभाव किए बिना सभी भारतवासियों की भावनात्मक एकता और सद्भावना के लिए कार्य करूँगा । मै पुनः प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं हिंसा का सहारा लिए बिना सभी प्रकार के मतभेद बातचीत और संवैधानिक माध्यमों से सुलझाऊँगा ।’’
भीड़,मंत्रीजी व्दारा पढ़ी गई प्रतिज्ञा को दोहराते रहे । बीच में किसी ने नारा लगाया..
‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद...’’
‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद...’’
भीड़ के नारे से आकाश भी ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद...’’के नारे से गूँज उठा । मुझे लगा हिन्दुस्तान में आसमान भी आज़ादी की खुशियाँ मनाने लगा है।
लेकिन यह क्या ? तीन-चार पुलिस मिलकर साथ में लाए हुए मुजरिम को लातों-घूँसों से पीटने लगे हैं। उसे घसीटते हुए ले जाने लगे हैं। भीड़ देखकर मेरा हौसला बढ़ा हुआ था,मैं बीच में हस्तक्षेप करते हुए बोला,-
‘‘अरे भई उसे क्यों पीट रहे हो । उसका कसूर क्या है ?’’
‘‘वह हथकड़ी छुड़वाकर नारे लगाने लगा । वह मुजरिम है ।’’
‘‘ भाग तो नहीं गया न वह । हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद के ही तो नारे लगा रहा है ।’’
‘‘वह मुज़रिम हैं ।’’
‘‘लेकिन वह हिन्दुस्तानी भी तो हैं न । उसे अधिकार है हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद के नारे लगाने का ।’’
‘‘नहीं...नहीं...ऐसा नहीं चलेगा । वह मुजरिम है । वह हथकडि़यों समेत नारे लगा रहा था ।’’
पुलिस मानी नहीं । उस मुज़रिम को पीटती रही । मुजरिम अब भी ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद...’’के नारे लगा रहा था ।

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शनिवार, 28 जनवरी 2012

पिलोरिया--कहानी --कृष्णशंकर सोनाने

पिलोरिया

‘‘ तुम जिनके लिए प्रज्यापत्य जैसा कठिन व्रत कर रहे हो वो कभी भी तुम्हारे लिए चिन्तित नहीं होती होगी । मेरा कहना मानो तो प्रज्यापत्य व्रत का समापन करा दो ।‘‘
‘‘ नहीं मित्र , हम कदाचित प्रज्यापत्य व्रत को भंग नहीं करेंगे । एक बार किया गया व्रत भंग करना अनुचित तो है ही साथ में अपराध भी है ।‘‘
‘‘ किन्तु मित्र , हम जानते है कि तुम्हारी ‘‘वो‘‘ तुम्हें स्वीकार नहीं करेगी।‘‘
‘‘ हाँ,जानता हूँ लेकिन हमारी महत्वाकांक्षा केवल उनके सान्निध्य की है। उनके निकट रहने से हमें आभास होता है कि मानो पीडि़त हृदय पर उनके कोमल स्पर्श का मखमली मरहम लग गया हो ।‘‘
‘‘कदाचित मित्र, तुम उस पाषाण-हृदय को पहचान जाते ।‘‘
‘‘ तुम्हें मेरे उनके प्रति पाषाण-हृदय कहना उचित नहीं है मित्र ! मेरे ‘‘वे‘‘पाषाण-हृदय नहीं है अपितु वे अज्ञानी है और भीरू भी । संभवतः तुमने मेरे ‘‘उनको‘‘ अभी तक जाना नहीं है।‘‘
‘‘ क्षमा करें मित्र ! लेकिन तुम्हारे ‘‘वो‘‘ क्या नाम है उनका ?‘‘
‘‘ पीएल ,बस, इतना ही समझ लो ।‘‘
‘‘ हाँ, पीएल ही सही लेकिन वे तुमसे पे्रम नहीं करती ।‘‘
‘‘ जानता हूँ मित्र ,हमारी पीएल हमसे पे्रम नहीं करती किन्तु उनके प्रति हमारी आसक्ति,आकर्षण और समर्पण आखिर यह सब.......‘‘
अविनाश की आँखों में अनायास आँसू भर आये । कण्ठ भर जाने से अविनाश आँसुओं को रोक नहीं पाये । अविनाश ,ब्रह्मस्वरूप के कांधों पर सिर रखकर फूट-फूटकर रो पड़े।
दो वर्ष पूर्व अविनाश अपने निजी आवास के सिलसिले में कल्पतरू अपार्टमेन्ट देखने के लिए अपने मित्र ब्रह्मस्वरूप के साथ गर्मियों के दिनों में गये थे । कल्पतरू अपार्टमेन्ट के व्दितीय तल पर जिस गृह को देखना था ,ठीक उसी के ठीक सामने पीएल रहा करती थी । संयोगवश उन दोनों ने पीएल के घर ही जाकर सम्पर्क किया था । कहते है कि विधि का विधान ही निराला होता है । कौन जातना था कि अविनाश,पीएल के प्रति मोहित हो जाएंगे और अपने तन मन की सुधि खो बैठेंगे । पहली ही मुलाकात में अविनाश, पीएल को निर्निमेष देखते रह गए थे । मानो पीएल को युगों-युगों से जानते हो । जैसे युगो-युगों से अविनाश को पीएल की तलाश थी और वह आज अविनाश के सामने साक्षात उपस्थित थी ।
‘‘क्या देख रहे हैं आप ?‘‘
इस प्रश्न का उत्तर अविनाश के पास नहीं था फिर भी उसने साहस किया ।
‘‘ मुझे लगता है आपको बहुत पहले से जानता हूँ लेकिन कैसे ,मुझे ज्ञात नहीं ।‘‘
पीएल सिर्फ मुस्करा दी । अविनाश को पीएल के मुस्कराने से लगा जैसे सावन के महिने में फूलों की सुखसद बरसात हो आई हो ।
‘‘ अच्छा जी ! जाने की आज्ञा दीजिए । नमस्ते !!‘‘
‘‘ नमस्ते ! फिर कभी आइयेगा ।‘‘
पीएल करबद्ध हो मुस्करा दी । मोटरसाइकिल पर सवार होते समय ब्रह्मस्वरूप विस्मित थे कि आज अविनाश इतने प्रसन्न क्यो है ? ब्रह्मस्वरूप,अविनाश की मनोभावनाओं को समझने का प्रयास कर रहे थे ।
‘‘ बीएस ! जानते हो इस सुन्दरी को मैं कब से जानता हूँ ?‘‘
‘‘युगों-युगों से , है न !‘‘
‘‘ तुम कटाक्ष कर रहे हो लेकिन यह अटल सत्य है कि मैं उनको युगों से जानता हूँ । संभवतः अब तक मुझे इनकी ही तलाश थी । एक बात कहूँ ?‘‘
‘‘ कहिए ।‘‘
ब्रह्मस्वरूप को अविनाश बीएस कहा करते थे । क्योंकि ब्रह्मस्वरूप बहुत ही अटपटा नाम लगता था । बीएस का प्रश्न सपाट था किन्तु अविनाश के हृदय में आनन्द की हिलोर उठ रही थी ।
‘‘ अब हमारी हार्दिक अभिलाषा है कि हम इनके निकट आकर अपना सम्पूर्ण जीवन इनके आंचल में व्यतीत कर दें ।‘‘
और अविनाश ने ऐसा ही किया । जिस किसी तरह से कल्पतरू अपार्टमेन्टस में ठीक पीएल के गृह के सामने अपने लिए एक गृह आवंटित करवा लिया ।
समय व्यतीत होते पता नहीं लगा । आहिस्ता-आहिस्ता अविनाश अपने हृदय में युगों से छिपी अभिलाषाओं को पीएल पर निछावर करने लगे लेकिन अविनाश ने पीएल पर अपने हृदय में लुके-छिपे प्रेम को उजागर नहीं होने दिया । अविनाश को भय था कि पीएल के समक्ष हृदय की भावनाओं को उजागर कर देने से पीएल का सान्निध्य विछिन्न हो जायेगा । समय के साथ-साथ अविनाश, पीएल के बहुत निकट पहुँच गए।
‘‘ आप मेरा इतना अधिक खयाल क्यों रखते हो अविनाश ?‘‘
पीएल ने एक दिन अनायास अविनाश से प्रश्न कर ही लिया । अविनाश चुप रहे । वे मन ही मन सोचने लगे,यदि पीएल के समक्ष हृदय के उदगार प्रगट कर दिए तो भय है कि पीएल इन कोमल रिश्तों को दुत्कार दें । वे संक्षिप्त सा उत्तर देकर रह गए-
‘‘ मुझे आपकी सेवा करना अच्छा लगता है । मेरा अपना है ही कौन जिनकी सेवा कर मैं अपने हृदय का भार कम कर सकूँ ।‘‘
अविनाश के उत्तर से पीएल के चेहरे पर प्रसन्नता की रेखाएं उभर आई । वे धन्य धन्य हो गए कि पीएल उनकी सेवा से प्रसन्न है ।
जिस पे्रम में सेवा भावना,समर्पण की अटूट अभिलाषा और त्याग का पुट सम्मिलित होता है, वह पे्रम वास्तव में ईश्वर का महाप्रसाद होता है । ऐसा समर्पित प्रेम प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त होना दुर्लभ है । कहा जाता है कि पे्रम कभी किया नहीं जाता अपितु हो जाता है । प्रेम की कोई आयु नहीं होती । किसी भी आयु में किसी के भी प्रति हृदय के किसी कोने में पे्रम के अंकुर प्रस्फुटित हो सकते हैं । अविनाश के साथ ऐसा ही हुआ । उन्हें क्या पता था कि जिन्दगी के किसी मोड़ पर अनायास पीएल से भेंट होगी और हृदय के किसी कोने में पे्रम का यह नन्हा सा पौधा स्नेह के आंचल में लहलहाने लग जाएगा ।
अप्रत्यक्ष रूप से पे्रम के अंकुर अविनाश और पीएल दोनों के हृदय में
धीरे-धीरे पनपते रहे । प्रत्यक्ष रूप से पे्रम प्रदर्शित करना दोनों के लिए दुष्कर था । पीएल के लिए भी मर्यादा का उल्लंघन करना अत्यन्त कठिन था । दोनों अपनी कोमल भावनाओं को प्रत्यक्ष करने में संकोच करते रहे । लेकिन सृष्टि के उपवन में खिले पुष्प की सुगन्ध को कौन बांध सकता है। उपवन में खिले पुष्प की सुगन्ध चारो दिशाओं मेें फैलना स्वाभाविक है और ऐसा ही हुआ । पीएल की सखी अनिता को अविनाश के प्रणय निवेदन का आभास हो गया । धीरे-धीरे यह सुगन्ध निकट सम्बन्धियों में फैलना प्रारंभ हो गई। प्रणय ज्वार को रोकना कठिन होता है । प्रणय की अग्नि ऐसी होती है, उसे जितनी हवा दोगे वह उतनी ही अधिक तीव्र होती जाती है। बुझने का नाम ही नहीं लेती ।
वसन्त अपने पूर्ण यौवन के साथ ऋतु विहार करने लगा । भंवरे पुष्पों के मकरन्द का पान करने में तन्मय हो गए । दिनकर अपनी किरणंे सम्पूर्ण प्रकृति के अंगों को स्पर्श कर फैला रहा था । मन्द-मन्द मलयाचल की मधुर बयार हृदय को उन्मादित किये जा रही थी । पलाश अपने पूर्ण यौवन को बिखेर रहा था और अविनाया-पीएल का तृषित व्याकुल हृदय मिलन के लिए व्याकुल हो रहा था किन्तु अपने तृषित हृदय के उद्गारों को प्रिय के समक्ष कैसे प्रगट करें ? इसकी पीड़ा बार-बार हृदय को कचोटने लगी । अपने ही बिल्कुल निकट बैठी पीएल के केशपाश में अंगुलियाँ फेरते हुए अविनाश ने अपने प्रिय के माथे पर चुम्बन ऐसे जड़ दिया जैसे कोई निष्पाप पिता अपनी पुत्री के कपोलों पर चुम्बन जड़ देता है। मर्यादाओं का उल्लंघन करना अविनाश के बस से बाहर था तो पीएल अविनाश के कोमल स्नेहमय स्पर्श को पृथक करने में असमर्थ थी। पीएल मुस्करा दी ।
‘‘ अविनाश ! मेरी मानो तो तुम किसी अच्छी सी लड़की से विवाह कर लो । बहुत अच्छा रहेगा ।‘‘
‘‘ नहीं जी , मन नहीं चाहता । बस एक निवेदन है ।‘‘
‘‘ वह क्या ?‘‘
‘‘ मुझे अपने आंचल में ही रहने दो । मेरे लिए इतना पर्याप्त है।‘‘
‘‘ तुम पागल हो गए हो । मै तुम्हारा विवाह करवा देती हूँ ।‘‘
‘‘ किन्तु आपके समान कोई नहीं मिलेगा ।किल्कुल आपके जैसी..‘‘
पीएल के अधरो ंपर इन्द्र्रधनुष के समान लम्बी मुस्कान उभर आई और वह खिलखिला पड़ी ।गुनगुनाने लगी -
‘‘ आप जैसा कोई मेरी जिन्दगी में आए तो बात बन जाएं ...‘‘?
‘‘ आपने ठीक ही कहा, न कोई आपकी जैसी लड़की मिलेगी और न हम विवाह करेंगे ।‘‘
पीएल ,अविनाश की इस बात पर खिलखिलाकर हंस पड़ी ।
‘‘ आप अपने हृदय की भावनाओ को अच्छी तरह प्रस्तुत करते हो लेकिन आप मुझे नहीं पा सकते ।‘‘
‘‘ कोई बात नहीं । आपके आंचल का सहारा ही मेरे लिए पर्याप्त है।‘‘
भावनाओं के आवेश में अविनाश ने अनायास झुककर पीएल के चरणों पर अपने अधरों को रखकर चूम लिया ।
‘‘ आप मुझसे इतना पे्रम करते हो लेकिन मैं विवाहिता हूँ और जो उचित नहीं उसे कैसे स्वीकार कर सकती हूँ ।‘‘
‘‘ हमें केवल आपके आंचल का सहारा चाहिए और कुछ भी नहीं । हम सारा जीवन आपके सहारे व्यतीत कर देंगे ।‘‘
पीएल मोम की तरह पीघल गई । अविनाश के हाथों को अपने हाथंो में ले सान्त्वना भरे लहजे में बोली-
‘‘मैं सारा जीवन आपके साथ हूँ अवि....आप चिन्ता न करें लेकिन मुझे भी विवाहित जीवन का पालन करना होगा ।‘‘
‘‘ हमें कोई आपत्ति नहीं । आप जैसे रखोगे वैसे हम रहेंगे ।‘‘
‘‘ तो फिर मेरा कहना मानना होगा ।‘‘
‘‘ हम आपके प्रत्येक आदेश का पालन करेंगे ।‘‘
अपने हाथों को पीएल के हाथो से अविनाश पृथक नहीं करना चाहते थे । इसलिए उन्होंने पीएल के हाथांे को अपने वक्ष से लगा लिया और आँखें मूँद ली । अनायास अविनाश की आँखांे से अजस्र अश्रु धाराएं बह निकली ।
समस्त विश्व में पे्रम ही एक ऐसा तत्व है जो किसी बन्धन, किसी मर्यादा, किसी विधान किसी जाति और धर्म और बुद्धि और ज्ञान को स्वीकार नहीं करता । चाहे मीरा-श्याम हो,बाजीराव-मस्तानी हो अथवा बच्चन-तेजी हो । पे्रम अपने विशाल हृदय में निर्भिकता और अत्यन्त कोमल होकर पुष्प की भांति तूफान में वक्ष ताने खड़ा रहता है ।
यह भी अटल सत्य है कि सच्चे पे्रमी कभी भी मिल नहीं पाते । इतिहास साक्षी है कि बाजीराव-मस्तानी, हीर-रांझा, शीरी-फरहाद और पुरूरवा-उर्वशी कभी एक दूसरे को पा नहीं सके । यही स्थिति अविनाश और पीएल के सामने श्ूार्पणखा के समान विकराल मुख पसार कर खड़ी हो गई।.......
प्रातः रवि की प्रथम किरणों के साथ अविनाश आज पीएल के समक्ष अपने हृदय की अभिलाषा अभिव्यक्त करने के उद्देश्य से फूलों का एक सुन्दर गुलदस्ता लिए पहुँच गया । पीएल पिछली रात से अस्वस्थ्य होने के कारण शैया पर लेटी हुई थी । अविनाश गुलदस्ता पीएल के पैरों पर रख अधरों से पैरों को चूम लिया । पैरों पर स्पर्श का आभास पा पीएल ने धीरे-धीरे नेत्र खोले । सामने अविनाश को खड़ा पाया ।
‘‘ आपने यह क्या किया ?‘‘
‘‘ अपने भगवान के श्रीचरणों में अपना हृदय प्रस्तुत किया है ।‘‘
‘‘ पागल हो , पूरे पागल ।‘‘
अविनाश मुस्करा भर दिए और पीएल के सिरहाने बैठ केशों में अंगुलियाँ फेरने लगे ।
‘‘ ओह ! आपको तो ज्वर है ।‘‘
‘‘ नहीं ,थोड़ी सी हरारत है , कम हो जाएगी । सिर में पीड़ा हो रही है।‘‘
‘‘ लाओ , सिर दबा दूँ ।‘‘
अविनाश आहिस्ता-आहिस्ता पीएल के माथे को दबाने लगे । पीएल नेत्र मूँद निश्चेष्ट लेटी रही । बहुत देर तक अविनाश,पीएल के माथे को दबाते रहे ।
‘‘ लाओ पैर .....‘‘
इन्कार किए बग़ैर पीएल ने अपने दोनों पैर अविनाश की ओर बढ़ा दिए । अविनाश धन्य हो गए । पीएल के श्रीचरणो को अपने गोद में रख लिया । थोड़ा झुके और आहिस्ता से पीएल के पैरों को चूम लिया । पीएल ने कोई प्रतिकार नहीं किया । वह निश्चेष्ट लेटी रही । अविनाश स्वयं को धन्य समझने लगे । आत्मा से किया गया पे्रम कभी भी कलुषित भावनाओं को जन्म नहीं देता अपितु निश्चल पे्रम सेवा,त्याग,समर्पण से ओतप्रोत होता है । हृदय से किया गया पावन पे्रम व्यक्ति को भावविभोर कर देता है और उसे परमानन्द की उपलब्धि होने लगती है । अविनाश के हृदय में पीएल के प्रति प्रगाढ़ पे्रम की गंगा उमड़ने लगी । दूसरी ओर पीएल के हृदय में सूक्ष्म रूप से अनियंत्रित पे्रम का ज्वार उमड़ उठा । अविनाश का पावन पे्रम प्रिय के चरणों को वक्ष से लगाकर धन्य-धन्य हो रहा था तो पीएल का पे्रम अविनाश को ललकार रहा था । कहा जाता है कि नारी में पे्रम का अन्तिम बिन्दु काम होता है। लेकिन अविनाश पावन पे्रम के उन्माद में एक नारी के कामोन्माद को पहचान नहीं पा रहे थे । वे तो पे्रम पूजन में इतने मस्त थे कि एक औरत एकान्त में पुरूष के संसर्ग में लिप्त है किन्तु पुरूष को प्रकृति की अनौखी लिप्सा का आभास नहीं । पवित्र पे्रम अपनी कसौटी पर सत्य ही उतरता है ,चाहे नारी जो कुछ भी समझे । क्या यह अविनाश की जीत है अथवा हार ? विधाता ही जाने किन्तु अविनाश अपने पे्रम को कलुषित नहीं होने देना चाहते थे । पे्रम में हार-जीत समान होती है ।
पावन पे्रम की सदा विजय होती है और वह सर्वोच्च शिखर पर पहुँचता है । जबकि इसके विपरीत लेशमात्र की कमी होने पर प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न हो सकती है । किन्तु काम-रति के खेल में पावन पे्रम का कोई स्थान नहीं होता । नियति के विधान के अनुसार प्रकृति ने प्रतिकूल खेल रचना प्रारंभ कर दी । अविनाश और पीएल के बीच भूचाल उत्पन्न हो गया ।
भूचाल,भूमि-धरातल को यहाँ तक कि पे्रम के मूलाधार को झटका दे गया और सूखा दिया उन खिलते हुए पुष्पों को जो उपवन में मधुर बयार बिखेर रहे थे और मदमस्त भौंरों को उन्मादित कर रहे थे । हिला दिया उस पूजारी को जो अपने देव की पूजा मेें मस्त था और समूचे विश्व को विस्मृत कर रहा था । भक्त को भगवान से पृथक करने में असुरी शक्तियों का जितना बल होता है उतना बल पे्रमियों को पृथक करने में अविश्वसनीय तत्वों का होता है।
अर्पणा का पदार्पण असुरी शक्तियों को प्रबल करने में सहयोग प्रदान करने लगा । पूजारी को अपने देव से पृथक करने में अर्पणा ने विशेष भूमिका निभाई। पीएल के प्रति अविनाश की प्रणयमयी कोमल भावनाओं को अर्पणा भलिभांति जानती थी जिसके कारण अविनाश की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने लगी । परिणामस्वरूप पीएल आहिस्ता-आहिस्ता अविनाश से दूर रहने लगी लेकिन यह दूरी हृदय की दूरियों को कम न कर सकी ।
एक शाम जब अविनाश बच्चों को पढ़ा रहे थे ,पीएल उनके बिल्कुल पास बैठी हरी सब्जियाँ काट रही थी । बीच-बीच में अविनाश से बातें भी कर रही थी ।
‘‘ अवि ! तुम मेरे पीछे क्यों पड़े हो ?‘‘
‘‘क्योंकि हम आपसे पे्रम करते हैं । अपने पावन हृदय से आपको पूजते हैं लेकिन आपसे चाहते कुछ नहीं । केवल आपके आंचल के सहारे रहना चाहते हैं ।‘‘
‘‘ जो संभव नहीं है आप उसे नहीं पा सकते ।‘‘
‘‘ मुझे पाने की कामना नहीं है लेकिन ऐसी कोई बात है तो एक दिन हम आपक पा ही लेंगे ।‘‘
‘‘ ऐसा कभी नहीं हो सकता ।‘‘
‘‘ चिन्ता की कोई बात नहीं । लेकिन हमें अपने से दूर नहीं करना । बस यही प्रार्थना है । यदि स्वीकार नहीं कर सकते हो तो हमें ज़हर दे दो । आपसे बिछड़ने से बेहतर होगा हम मृत्यु को गले लगा लें ।‘‘
अविनाश का कण्ठ अवरूद्ध हो गया और नेत्र भर आएं। उनका हृदय चाह रहा था,इस वक्त वे पीएल के आंचल में अपना मुख छिपाकर फूट-फूटकर रो लें किन्तु उनका साहस नहीं हो पाया । वे रूमाल से अपने आँसू पोंछते हुए बाहर निकल गए ।
इस घटना के उपरान्त लम्बी अवधि तक अविनाश कभी पीएल के सामने नहीं पहुँचे । अपने ठीक सामने के मकान में रहने के बाद भी अविनाश,पीएल को स्पर्श करना तो दूर वे दो शब्द बतियाने के लिए भी व्याकुल होने लगे ।
अर्पणा ने अविनाश की इस कमजोरी का लाभ उठाने में कोई नहीं की । अर्पणा ने पीएल से घनिष्ठता बढ़ा ली । अविनाश सदैव पीएल के खयालों में खोये-खाये अर्पणा से पीएल के विषय में बातें करते रहते । अर्पणा मनगढ़न्त बातें बनाकर पीएल के प्रेम की दुहाई दिया करती । अत्यन्त संवेदनशील होने के कारण अविनाश,पीएल का पे्रम और निकटता पाने के लिए लालायित होने लगे । छटपटाने लगे । एकान्त में बिफर-बिफर कर रोने लगे ।
‘‘ मैं पीएल के लिए प्रज्यापत्य व्रत करना चाहता हूँ अर्पणा ।‘‘
‘‘ यह तो बहुत कठिन व्रत होता है।‘‘
‘‘ हाँ, होता है लेकिन पीएल रूठ गई है उसे मनाने के लिए यह व्रत करना होगा ।‘‘
‘‘ क्या तुम यह व्रत कर पाओगे ।‘‘
‘‘ मैं अपनी पीएल के लिए इससे भी कठिन कोई व्रत होगा तो उसे भी करना चाहूँगा । चाहे मेरे प्राण निकल जाए । इसकी मुझे तनिक भी चिन्ता नहीं ।‘‘
‘‘ जैसा तुम उचित समझो ।‘‘
अविनाश ने बारह दिन का प्रज्यापत्य व्रत प्रारंभ कर दिया। परिणामस्वरूप अविनाश का शरीर अत्यन्त कमजोर हो गया । नेत्र भीतर धंस गए । वक्ष की पसलियाँ बाहर निकल आई । मुखमण्डल निश्तेज हो गया । कुछ ही समय में अविनाश मृत देह की तरह हो गए । शैया पर अर्ध लेटी अवस्था में अविनाश छत की ओर निर्निमेष निहारा करते । उस दिन उनके मित्र बीएस उनके पास बैठे थे ।
‘‘ तुमको इतना कठिन व्रत नहीं करना चाहिए था । आखिर इस व्रत से तुमको क्या लाभ हो सकता है।‘‘
अविनाश के सजल नेत्रों से अश्रु धाराएं बह निकली ।
‘‘ एक बात कहूँ अविनाश ! यदि तुम अन्यथा न समझो ?‘‘
‘‘ क्या कहना चाहते हो । मैं कदाचित अन्यथा नहीं लूँगा ।‘‘
‘‘ तुमको रोग हो गया है भयंकर रोग,जिसकी कोई चिकित्सा नहीं है।‘‘
‘‘ भयंकर रोग ! कौन सा रोग ?‘‘
‘‘ तुमको पीएल का पिलोरिया हो गया है।‘‘
‘‘ पिलोरिया .!‘‘
‘‘ हाँ ! पीएल का पिलोरिया । मैं नहीं जानता पीएल का भावार्थ क्या होता है । लेकिन यह सच है।‘‘
‘‘क्या तुम पीएल का भावार्थ जानना चाहते हो ?‘‘
अविनाश के चेहरे पर वेदना की रेखाएं उभर आई जिसे बीएस अच्छी तरह पढ़ रहे थे किन्तु अविनाश की विकट मानसिक दशा के समक्ष वे चुप रहे ।
‘‘ तो सुनो ,पीएल का शब्दार्थ पे्रमलता होता है । पी फार पे्रम और एल फार लता । पीएल यानी पे्रमलता । यह उनका नाम है बीएस ।‘‘
‘‘ अर्थात् तुम्हारे मकान के सामने.‘‘
‘‘ हाँ ,मैंने तुमको कहा था । शायद मुझे युगों-युगों से इनकी ही तलाश थी लेकिन इस जनम में भी.‘‘
अविनाश इतना कह चुप हो गए ।?
‘‘ अविनाश ! तुम पे्रम में असफल हो गए हो । मैं जानता हूँ तुम्हारा पे्रम सच्चाईयों को छूनेवाला पे्रम है लेकिन खैर, मेरी एक सलाह मानोगे ?‘‘
‘‘ पे्रम सलाह का मोहताज नहीं होता बीएस ।‘‘
‘‘ तो तुम यों ही घुल-घुलकर मर जाओगे पीएल के पिलोरिया में....‘‘

और यह सत्य घटित हो गया । अविनाश, पीएल की याद में घुल-घुलकर मृत्यु को प्राप्त हो गए । कहते हैं आज भी अविनाश की व्याकुल आत्मा पीएल यानी पे्रमलता के वियोग में कल्पतरू अपार्टमेंट के आसपास भटकती रहती है।
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आदमी के हक में..संकलन से--कृष्णशंकर सोनाने

छत

जिस तरह तन को ढंकने के लिए
कपड़ों का होना जरूरी है ।
जिस तरह
लाज रखने के लिए
शर्म का होना लाजमी है ।
जिस तरह
रहस्य ढांकने के लिए
गोपन का होना आवश्यक है ।
जिस तरह
सिर छिपाने के लिए?
छत का होना जरूरी है ।
दीवारों का होना
कोई मायने नहीं रखता
खिड़की दरवाज़ों के बिना
काम चलाया जा सकता है ।
लेकिन
बहुत ही नामुमकिन है
जीवन का
गुजन-बसर होना
छत के बिना ।
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8-दरवाज़ा

बिना दरवाजे के कोई
घर नहीं बनता ।
बाहर से दरवाज़ा
बन्द करना जरूरी नहीं है
घर की दहलीज
पार करना अपशकुन माना जाता है ।
अहं की सांकल,मद की नामपटट्ी
मोह का ताला देख
बिदक जाते हैं लोग
ऐसे में बन्द रखोगे दरवाज़ा तो
दस्तक देंगे ही लोग ।
लोगों के गले में ही
लटके होते हैं दरवाज़े
जहाँ भी जाते हैं
साथ लिए चलते हैं ।
मैं घर बनाऊँ ना बनाऊँ
दरवाज़े में सांकल ताला और
नामपट्टी नहीं होगें
खिड़कियों का तो सवाल ही नहीं
सपने सारे आकर रूक जाते हैं बाहर
खिड़की और दरवाज़ों के
जब भीतर और कोई होता है
और पहरा दे रहे होते
सांकल,ताले और नामपट्टी ।
दरवाज़ों का संबंध होता है
खुले आसमान से
उड़ती रहती जिसमें
राजहंस सी धवल चिडि़या
और सटे होते हैं आंगन
पेड़-पौधे फूल पत्तियाँ
और खिलखिलाते रहते हैं बच्चे ।
दरवाज़े सपने देखते हैं
रख जाए कोई आकर
टिमटिमाता हुआ दीपक
उनकी चैखट पर ।
दरवाज़े होने से
अन्तराल बढ़ जाता है
तेरे,मेरे और उनके बीच
बिछ जाती सन्नाटे की लम्बी चादर
जब कभी तलाश
करनी हो अपनी
अपने से अलग हटकर अलहदा
तोड़ना होगा हमें
घर के सारे दरवाज़े
खोलना होगा हमें
घर की सारी खिड़कियाँ ।
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आदमी के हक में..संकलन से

बस्ती के लोग

अलग-अलग धड़ों में बंट गए है
मेरी बस्ती के लोग
बैठ बारूद पर तिलियाँ जला रहे हैं
मेरी बस्ती के लोग ।
भाई-चारा भूल बैठे है
नफरत की गांठ ऐंठ बैठे हैं
अपने मुख में कड़वी ज़बान
बरसों से लुकाए बैठे हैं
अड़ौसी-पड़ौसी दुआ-सलाम
भूल बैठे है मेरी बस्ती के लोग
अलग-अलग धड़ों में बंट गए है
मेरी बस्ती के लोग ।
रिश्ते-नाते कड़वे हो गए
अपने ही वाले भड़वे हो गए
घर अपनों का जलते देख-देख
बगले झांपते तड़वे हो गए
अब तो मान मार्यादा भूल बैठे है
मेरी बस्ती के लोग ।
अलग-अलग धड़ों में बंट गए है
मेरी बस्ती के लोग ।
कौन किसी पर करें भरोसा
पे्रम-प्याली में ज़हर परोसा
आनन-फानन मेल मिलाप है
फैला रखा है औपचारिकता का भूसा
जिस माला में फूल गूँथे हो
गोले-बारूद पिरो रहे है
मेरी बस्ती के लोग ।
अलग-अलग धड़ों में बंट गए है
मेरी बस्ती के लोग ।
( दिः 01.03.2011)

59-नास्टेल्जिया

तुलसी,जायसी और मीरा ने नहीं कहा,और
न ही कबीर या मुक्तिबोध ने कहा
बल्कि आप,हम सभी देख रहे हैं
गाँधी के तीनों बन्दर भी अंजान नहीं है
लेकिन फिर भी
अन्यमनस्क होकर निरपेक्ष भाव से
टकटकी लगाए हुए है
जो हो रहा है उसे
महज़ साक्षी होकर देख रहे है ।
परिवर्तन चाहे हो या न हो
लेकिन जो रोग घुन् बनकर लग चुका है
वह भीतर तक खोखला कर रहा है
विवश है गाँधी और विवेकानन्द
चाहकर भी बदल नहीं पा रहे है मानसिकता
कर्णधारों और ऊँचे पदों पर आसीन
महामहिमों की ।
भीतर तक पूर्वाग्रह से ग्रसित रोग
इतनी आसानी से पीछा नहीं छोड़ता
जब तक कि हम स्वयं अपनी इच्छाशक्ति को
दृढ़ बनाने का संकल्प नहीं लेते ।
समूची मानवता ताक रही है
उस ओर
जहाँ से उसे पूरी उम्मीद है कि
एक न एक दिन
इस महारोग से मुक्ति मिल जाएगी
और
समरता की जड़ों में कोपलें फूटेगी
वसुन्धरा हरी-भरी हो जाएगी
मुक्तिबोध एक बार फिर मुस्कराएंगे
कहेंगे
घुन् लगे इस रोग को सींचों मत
इसे समूल नष्ट कर दो
कि लहलहाऐ मानवता
चाहे कितनी भी संकटापन्न स्थिति हो
कोइै तो इलाज होगा
इस बीमारी का ।
( 03.03.2011) गुरूवार 6.00प्रातः
रिश्ते

दोस्त तो मिलते नहीं
दुश्मन मिल जाय बहुत बड़ी बात है
अपने तो गले लगते नहीं
गले,पराए लग जाए
सबसे बड़ी बात है
तुम तो खालिस लेन देन की बातें करते हो
कुछ दिया तो कहते हो
मेरे अजीज है आप
कुछ लिया तो कहते हो
दुश्मन मेरे लगते हो ।
दोस्त तो तुम लगते नहीं
ना ही तुम अपने लगते हो
दुश्मन बन जाओ तो बहुत अच्छी बात है
कम अज कम दुश्मनी का रिश्त तो कायम रहेगा ।
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आदमी के हक में..संकलन से

चाँद

मेरे जागने से लेकर
सोने तक
वह मुस्तैद रहता है
मेरे साथ ।
जब मैं
सो रहा होता
वह जागते रहता है
जैसे पहरा दे रहा हो
जब मैं
चल रहा होता
वह मेरे साथ-साथ चलने लगता है
मेरे ठहरने पर
वह भी ठहरता है
मैं भले ही थोड़ा सुस्ता लूँ
वह बराबर सजग रहा करता है
सुस्ताना उसने सीखा नहीं
लेकिन जब मैं
जाग जाता हूँ
वह सो जाता है
जागने की तैयारी में
क्योंकि उसे पता है
मेरे सो जाने पर
उसे पहरा देना होगा
मुस्तैद होकर ।
( दिनांक 21.09.2010)

चाहने पर

चाहने पर
कभी चाहा हुआ नहीं होता
अनचाहा हो जाता है।
चाहने पर
यदि चाहा हुआ हो जाय तो
हम कहते हैं
यह तो होना ही था
इसलिए हो गया ।
चाहने पर
न तो राम का अभिषेख हुआ
न ही पाण्डवों को राज्य मिला ।
चाहने पर
कभी नहीं बन पाती कोई कविता
कोई अच्छी सी कहानी
कोई आख्यान ।
चाहने पर
कुछ होना होता तो हो जाता
जैसे कोई राजनेता
लुच्चा,लफंगा,चिढ़ीमार ।
( नवम्बर,2010)

प्रेम करने के लिए

पे्रम करने के लिए
एक प्रिय का होना जरूरी है
जिसकी मांग में
भरा जा सके सिन्दूर
मेरी चुटकी में भरा सिन्दूर
किस मांग में भरूँ
न मैं किसी का प्रिय हूँ
न कोई मेरा प्रिय बना
मुझे तलाश है
एक अदद प्रिय की ।
( 31.12.2010)

जरूरत से ज्यादा

अक्सर लोगों की यह आकांक्षा रहती
कि उनके पास यह भी होता तो
कितना अच्छा होता,या
वह भी होता तो कितना अच्छा होता
इसे और उसे पाने की उनकी आकांक्षा
कुलांचे मारने लगती है,और
उसे पाने के लिए
जी जान से ज्यादा मेहनत करने लगते हैं
और अन्ततः वे उसे पा ही लेते हैं
हालांकि ऐसा नहीं कि
उनके पास वह चीज पहले नहीं थी
लेकिन उनकी आकांक्षा थी
जो चीज उनके पास है
वह बहुत कम है
शायद उनकी जरूरत इससे ज्यादा की है
और यह चीज जरूरत से ज्यादा है
जरूरत से ज्यादा चीज ज़हर बन जाती है।
( दिनांक 03.03.2011)

आदमी के हक में...संकलन से

विश्वास

वह इतना विश्वास करने लगती है कि
उसके विश्वास पर विश्वास
होने लगता है
और उसके विश्वास के विश्वास पर
विश्वास करना ही पड़ता है ।

उसके विश्वास में
इतना विश्वास है कि
अ-विश्वास का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता ।

आखिर उसका विश्वास
इतना विश्वसनीय होता है कि
उस पर विश्वास करना लाजमी है ।

विश्वास की डोर
विश्वास पर टिकी है
देखना
कभी टूटने न पाए ।
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अम्मा

सुबह-सबेरे चार बजे उठती है अम्मा
बर्तन-भाण्डे मांजने के बाद
नल में पानी आते ही
भर लेती है घर के सारे बर्तन भाण्डे ।

ताजे-ताजे पानी से
हाथ मुँह धोकर
दो लोटा निरा पानी पी लेती है
कहती है इससे हाजत अच्छी होती है ।

गैस-चूल्हे पर चाय रखने के बाद
आवाज़ देकर जगाती है
भोर हो रही है
उठो और मुँह-हाथ धो लो बेटे
चूल्हे पर चाय चढ़ा दी है ।

सारा दिन खटकती रहती है अम्मां
कभी कपड़े सूखाने डालती है
कभी दालें,बडि़यां और अचार को दिखाती है धूप
बच्चों के कपड़े लत्ते तह कर रखती है ।

दोपहर तक थक जाती है अम्मां
सिरहाने तकिया रख थोड़ा सुस्ताने लगती है
उठती है बराबर चार बजे
चाय का टेम हो गया है बेटी
घण्टे भर बाद तेरा पप्पा दफ्तर से आएगा
नाश्ते-पानी का बन्दोबस्त कर बेटी ।

अम्मां सुबह से शाम तक यूं ही खटकते रहती है
सारी चिन्ताओं जिम्मेदारियों को अपने सिर लेकर
अपने कत्र्तव्यों का निर्वहन करते हुए ।

जब से ब्याह कर आई है अम्मां
पल भर चैन से बैठी नहीं होगी
रिश्तों की चादर ओढ़े
सबकी खबर लेते हुए ।
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औरत का स्वर्ग

लड़की होना जितना कठिन है
उससे ज्यादा कठिन है
औरत होना ।
लड़की और औरत होने में
बहुत ज्यादा फर्क नहीं है
लड़की तब तक लड़की रहती है
जब तक वह औरत नहीं बन जाती ।
लड़की की परिभाषा और
औरत की परिभाषा भी अलग-अलग होती है
जैसे,
लड़की आग का गोला होती है,तो
औरत बर्फ की शीला होती है
लड़कियाँ जल्दी भभक जाती है
जबकि
औरत धीरे-धीरे पिघलने लगती है ।
लड़की की उष्मा और
औरत की शीतलता में
उतना ही फर्क है
जितना पे्रमिका की उष्मा और
माँ की शीतलता में ।
लड़की को स्पर्श करते ही
झटके से करंट लग जाता है
लेकिन
औरत का स्पर्श बड़ा सुखदायी होता है ।
लड़कियों का स्वर्ग यहीं होता है
वह महकने लगती है
वह चहकने लगती है
बागों,उपवनों और वसन्त में
सुगन्ध बिखेरते हुए ।
औरत का स्वर्ग देखने में नहीं आया
जबकि वह
स्वर्ग रचती है सारी दुनिया के लिए
सिवाय खुद को छोड़कर ।
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आदमी के हक में...संकलन से

सुबह में लहराती सुबहें

कोई मेनका या
उर्वशी ही होगी
प्रातः की शीतल मधुर समीर में
घर से निकलने पर
चेहरे पर बांधे हुए दुपट्टा
बचाने के लिए सुन्दरता ।,

कहीं झुलसा न दें
शीतल मधुर बयार
इन मेनका उर्वशियों के
मासूम चेहरे ।

हेमा,माधुरी,श्रीदेवी
रेखा हो या ऐश्वर्या
नहीं बांधती होगी दुपट्टा
झुलसती धूप में या
गर्म हवाओं के थपेड़ों में
अपने लावण्यमयी चेहरे पर ।

कोई खतरा नहीं सुन्दरता को
चाहे हो कैसा भी मौसम ।
रानी रूपमती हो या
हो जीनत अमान
दुपटट्े के पीछे का चेहरा
सामान्य का सामान्य ही रहेगा ।

मैं सुन्दर हूँ, का भ्रम पाले
यहां से वहां
गाडि़यों पर हवा में
बेपरवाह
लहराती सुबहें
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आग से खेलती आग

कितनी ही आग देखी है
धधकते भभकते हुए
आग के भीतर आग
आग के बाहर आग
आग के दरमियान आग ।
कहते हैं
लड़कियाँ आग होती है
धीरे-धीरे जलना शुरू करती है
लेकिन जब वह जलने लगती है
आग बन जाती है
शायद इसीलिए
वह आग से खेलती है,और
आग उससे खेलती है
चाहे उसे
लड़की कह लो
चाहे आग ।
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16-प्यार करती हुई लड़कियां

प्यार करती हुई लड़कियां
प्यार करती
नज़र नहीं आती
वह प्यार करती भी है या नहीं
पता नहीं चलता
उसका प्यार करना या न करना
एक सा लगता है
कभी लगता है कि वह
बिल्कुल ही प्यार नहीं करती
कभी यह लगता है कि
वह साक्षात प्यार की मूरत है
उसके प्यार करने,या
न करने के बीच
झूलना पड़ता है

हम यह समझते हैं कि
वह प्यार करती भी है
और नहीं भी करती है
प्यार की परिभाषा
हमें नहीं
उसे मालूम है ।
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