(1)
मैं नशे में नहीं हूं
और न ही उलजलूल बक-बक कर रहा हूं
नशे के ऊपर और नशा
और नशे के भीतर और नशा
मेरे सिर पर सवार होने का
सवाल ही उपस्थित नहीं होता ।
नशे के भीतर या बाहर के
बीच का जो अन्तराल है
जाने कब का फुर्र हो चुका है
तो श्रीमान जी
इसे बाकायदा नशे के बाहर का
एक तरह का नशा भी कह सकते हैं
जिसका उस वाले नशे से
कोई लेना देना नहीं है ।
यह जो नशा है,वह
बस इतना सा ही है जितना
आप मेरी कविता सुनते वक्त
महसूस कर सकते हैं
ये वो नशा है,जिसे
अमीर,गरीब,फकीर,साधु
और देश काल के भीतर रहनेवाले
महसूस कर सकते हैं ।
देशकाल को जाने बिना
भला यह नशा उतर कैसे सकता है ।
तो श्रीमानो ! मेरा यह नशा भी बरकरार रहने दो ।
तब ही तो बता पाऊंगा मैं
उसके सीने में उठती कसक
और आंखों से झरते आंसू
अंधेरों में तपते जिस्म
आन्तों में पड़ती मरोड़ें
मां के सीने का सूखता दूध
और तिज़ोरी में खनकते जवाहरात ।
यह नशा बरकरार रहने दो उतना
जितने से अंगूर की बेटी नाचने लग जाए
छमाछम ।।
(2)
आज़ादी और मेरे बीच
जो फासला है
वह महज़ पांच साल की उम्र का है
यानि कि मैं आज़ादी से
पांच बरस की उम्र में छोटा हूं
पांच बरस की उम्र के पाट को
पाटना मेरे लिए आसान तो क्या
बहुत ही कठिन है।
यदि मैं आज़ादी के साथ पैदा हुआ होता
तो मेरे ठाट-बाट कुछ और ही होते
जिसे देख आप लोगों की आंखे चौंधिया जाती ।
एक सौ तीस करोड़ की आबादी में
बुद्धिजीवी,पण्डित,मौला,फादर
राजनेता,अभिनेता,कलाकार
और मेरे प्रिय कवि चन्द्रकान्त देवताले
सारे के सारे यही कहते
तुम्हें आज़ादी के साथ पैदा होना था
होते तो तुम आज
आखिरी नहीं पहली पंक्ति में बैठे नज़र आते ।
(3)
समूचे भारत में
कई वर्ग के लोग रहते चले आ रहे हैं
जो हिन्दुस्तानी है वे हिन्द की सन्तान है
और जो भारतीय है,वे भरत के वंशज है
लेकिन जो इण्डियन है
वे न तो हिन्दुस्तानी है और न ही भारतीय
वे इण्डी के अयन है
अयन के तात्पर्य से आप भलिभांति परिचित होंगे
हाथ जला देते हैं ये,और
अक्सर धीमे ज़हर के समान असरदार होते हैं
ये जो इण्डियन है
आज़ादी के साथ पैदा होते ही
आज़ाद इण्डियन कहलाएं जाते हैं और
तब से आज तक वे बरोबर आज़ाद ही है।
इन्ही की करतूतों से
हालात-ए-मुल्क मुश्किलात में हैं ।
जब से विश्व-ग्राम बना है
हिन्दुस्तानी और भारतीय सिकुड़ गए है,और
इण्डियन्स का विस्तार होता चला जा रहा है
नवउदारवाद और नव-उवनिवेशवाद की जड़ें
हिन्दुस्तान और भारत को चट कर
इण्डिया को फला-फूला रही है।
हिन्दुस्तानी और भारतीय
आज़ादी के पहले भी गुलाम थे
आज़ादी के बाद भी गुलाम है
इन गुलामों में मैं भी एक गुलाम हूं
आज़ादी के साथ पैदा न होने का ग़म
मुझे आज तक साल रहा है।
(4)
उस रोज़ कॉफी हाउस के बाहर
चिथड़ों में लिपटा,गालों से पिचका
पीठ से लगी पीठ,आधे से ज्यादा झुका
बत्तीसी उधड़ी,आंखें घंसी
उलझे बालों में
हाथ पसारे दयनीय याचना में करबद्ध
लोकतन्त्र थर्र-थर्र कांपते गिड़गिड़ाते रहा था।
किसी ने उसके पसरे हाथों पर
दयारूपी भीख नहीं रखी
बल्कि हुआ यह है कि
धकियाते हुए उसे
फर्राटे से अपनी एम्पाला ले उड़े
पास ही सीट पर बैठा बुलडॉग
भौंकता रहा लोकतन्त्र पर
अपनी पूरी बत्तिसी निकाले हुए ।
तुमने देखा होगा चन्द्रभान राही
और आपने भी देखा होगा नरेन्द्र गौड़जी
लोकतन्त्र कुत्ते के जबड़ें में
इस तरह जकड़ा था
मानो वह लोकतन्त्र नहीं
हड्डी का स्वाददार टुकड़ा हो ।
मेरा यह कहना होगा कि
जो आज़ादी के साथ पैदा हुए
असल में वे ही सर्वशक्तिमान कहलाए
उन्हें इतनी आज़ादी मिल गई कि
संविधान की धज्जियां उड़ाने में
हासिल हो गई है महारत
चाहे जिसे खरीदो,चाहे जिसे बेचो
बाकायदा लायसेन्सधारी है ये सब
वे आज़ादी से सीना ताने
चाहे जिसे घकिया सकते
बल्कि बीच बाज़ार खड़े होकर
उतार सकते मौत के घाट चाहे जिसे
हम और आप देखते रह जाएंगे
मेरे प्रिय मित्र प्रतापराव कदम
और आप कुछ भी नहीं कर पाएंगे
नवल शुक्ल जी ।
(5)
इतना तो सच है कि
जब गांधी बाबा ने स्वराज का
नारा बुलन्द किया था
तब भी उनकी अहमियत सारा देश जानता था
और आज जब
हमारे बीच गांधी बाबा नहीं है
अब भी सारा हिन्दुस्तान
गांधी बाबा की अहमियत को बरकरार रखे हुए हैं
एक कदम भी चल नहीं पा रहे हैं
जहां कहीं या हर कहीं
गांधी बाबा का दामन पकड़े
आप,वह और हम सब
पार नहीं पा सकते किसी परेशानी के
गांधीबाबा का मुखड़ा देखते ही
अच्छे खासे शख्स के या
कू्ररतम से क्रूरतम आदमी के
चेहरे दमकने लग जाते हैं
आखिर क्यों न हो
एक गांधी बाबा ही है जिनके दम पर
सारा हिन्दुस्तान
एक दो कदम नहीं बल्कि
हज़ार-हज़ार कदम एक साथ चल देता है
या इसे यों कह सकते हैं
गांधीबाबा के दम पर
देश के किसी भी भले आदमी का ईमान
खरीदा जा सकता है बिल्कुल सस्ते दामों पर ।
आप,आप और आपने शायद
गांधी बाबा के श्रीमुख पर हमेशा मधुर मुस्कान देखी हो
यह वो ही मुस्कान है
जिसके देखते ही रोते हुए चेहरे पर पानी आ जाता है
रिश्तों के बीच टूटती दीवार
या तो हरहराकर टूट जाती है या
टूटते-टूटते बच जाया करती है ।
गांधी बाबा की वह मधुर मुस्कान एक जादू है
इस जादू को आप नहीं समझ पाएंगे भगवत रावतजी
इस मुस्कान को वे ही समझ सकते हैं
जिनको गांधी बाबा के बिना चैन नहीं आता
उड़ जाती है नीन्द आंखों की
एक और खास बात है
जिनके पास गांधी बाबा है उनकी भी और
जिनके पास गांधी बाबा नहीं है उनकी भी
नीन्द उड़ी-उड़ी रहती है
जितना ज्यादा गांधी बाबा को चाहोगे
उतनी ही हवस बढ़ती जाएगी
गांधी बाबा की हवस इतनी बढ़ जाती है कि
आदमी को उचित-अनुचित कुछ नहीं सुझता ।
तो भाइयों और साहिबानों !
आपमें यदि कूवत है
गांधी बाबा को हज़म करने की
तो मैं आपको सलाह देना चाहूंगा कि
जितने गांधी बाबा आते रहे
उन्हें आने ही आने दो
जब तक वे चाहे उन्हें आने ही दो,और
बिना डकार लिए हज़म करते जाओ ।
जब नेता,राजनेता,नौकरशाह
और नीचले ऊपरवाले लोग-बाग
फाइलों में ही योजनाएं और परियोजनाएं
बनाते रहते हैं
पुल-पुलिया,सड़क,बांध,भवन
तन्त्र-यन्त्र मन्त्र सब डकारते जाते रहते हैं
तब भी गांधी बाबा उन्हें देख-देख
मद्धम-मद्धम मुस्कराते रहते हैं
मानो जतला रहे हो कि
भैयन ! तुम सारे काले-करतूतों को
सरेअंजाम देते रहे,मैं
मैं तुम्हें देख-देख मुस्काते रहूंगा ।
1948 के बाद से गांधी बाबा
देश भक्तों की काली-करतूतों को
देख-देख बराबर मुस्करा रहे हैं
और उनकी तिजोरियों में
बड़े इत्मिनान से आराम फरमा रहे हैं ।
(6)
उस रोज़
न्यू मार्केट के हृदय स्थल पर स्थित
टॉप-एन-टाउन के चौराहे पर
कॉफी हाउस के मुंहाने पर
बहुत चहल-पहल हो रही थी
स्कूल-कॉलेज और भले घरों के लड़के-लड़कियां
आदमी-औरत,युवक-युवतियां
जवान - वृद्ध और
तरह -तरह के लोग-बाग
हसीन और जवान शाम का
लुत्फ उठा रहे थे
एक दूसरे की बगलें झांक रहे थे
गलबईयों का दौर चल रहा था
और जिन्दगी पहले से कहीं ज्यादा
चल रही थी तेज-फर्राटेदार
की जा रही थी जिन्दगी को
सफल बनाने की पूरी कोशिश
कोई भी इन्सान ऐसे वक्त को
अपने हाथों से फिसल देना नहीं चाह रहा था
जैसे फिसल जाती है बन्द मुट्ठी से रेत
और रह जाते हाथ रिते के रिते...
कोई भी भूखा-प्यासा दिख नहीं रहा था
सारे के सारे खा-पी के अघा रहे थे
इतना ही नहीं बड़े मज़े ले-लेकर
दिखा रहे थे ठेंगा
भारत के भाल पर
ठोक रहे थे पेंगा ।
एक सौ तीस करोड़ आबादी में से
तीस करोड़ प्रजातन्त्र
जी रहे कीड़े-मकोड़ों की तरह
घुटनों में मुंह छुपाएं
कांपती हुई ठण्ड
तपाती हुई वैशाखी धूप,और
झुलसती हुई रातों में ।
इतना तो सच है
मेरे प्रिय कवि राजेश जोशी जी
कि तन्त्र के मुंह में लग चुका है
प्रजा का ताज़ा-ताज़ा गर्म
स्वादिष्ट रक्त
उसकी डाढों में बिलख रहा है
हाडमांस का कमजोर प्रजातन्त्र ।
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सोमवार, 14 जून 2010
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