बुधवार, 23 मार्च 2011

कविताएं--कृष्णशंकर सोनाने

चांद
मेरे जागने से लेकर
सोने तक
वह मुस्तैद रहता है
मेरे साथ ।
जब मैं
सो रहा होता
वह जागते रहता है
जैसे पहरा दे रहा हो
जब मैं
चल रहा होता
वह मेरे साथ-साथ चलने लगता है
मेरे ठहरने पर
वह भी ठहरता है
मैं भले ही थोड़ा सुस्ता लूं
वह बराबर सजग रहा करता है
सुस्ताना उसने सीखा नहीं
लेकिन जब मैं
जाग जाता हूं
वह सो जाता है
जागने की तैयारी में
क्योंकि उसे पता है
मेरे सो जाने पर
उसे पहरा देना होगा
मुस्तैद होकर ।
( दिनांक 21.09.2010)

चाहने पर

चाहने पर
कभी चाहा हुआ नहीं होता
अनचाहा हो जाता है।
चाहने पर
यदि चाहा हुआ हो जाय तो
हम कहते हैं
यह तो होना ही था
इसलिए हो गया ।
चाहने पर
न तो रमा का अभिषेख हुआ
न ही पाण्डवों को राज्य मिला ।
चाहने पर
कभी नहीं बन पाती कोई कविता
कोई अच्छी सी कहानी
कोई आख्यान ।
चाहने पर
कुछ होना होता तो हो जाता
जैसे कोई राजनेता
लुच्चा,लफंगा,चिढ़ीमार ।
( नवम्बर,2010)

प्रेम करने के लिए

प्रेम करने के लिए
एक प्रिय का होना जरूरी है
जिसकी मांग में
भरा जा सके सिन्दूर
मेरी चुटकी में भरा सिन्दूर
किस मांग में भरूं
न मैं किसी का प्रिय हूं
न कोई मेरा प्रिय बना
मुझे तलाश है
एक अदद प्रिय की ।
( 31.12.2010)

जरूरत से ज्यादा

अक्सर लोगों की यह आकांक्षा रहती
कि उनके पास यह भी होता तो
कितना अच्छा होता,या
वह भी होता तो कितना अच्छा होता
इसे और उसे पाने की उनकी आकांक्षा
कुलांचे माने लगती है,और
उसे पाने के लिए
जी जान से ज्यादा मेहनत करने लगते हैं
और अन्तत: वे उसे पा ही लेते हैं
हालांकि ऐसा नहीं कि
उनके पास वह चीज पहले नहीं थी
लेकिन उनकी आकांक्षा थी
जो चीज उनके पास है
वह बहुत कम है
शायद उनकी जरूरत इससे ज्यादा की होगी
और यह चीज जरूरत से ज्यादा है
जरूरत से ज्यादा चीजें हवस को बढ़ावा देती है,और
.यह हवस कभी पूरी नहीं होती
.जरूरत से ज्यादा की हवस इन्सान को
भीतर ही भीतर खोखला कर देती है ।
.जरूरत से ज्यादा चीजें
.जगह मांगती है
और एक दिन ऐसा आएगा
सारी धरती
जरूरत से ज्यादा भर जाएगी ।
( दिनांक 03.03.2011)

बस्ती के लोग

अलग-अलग धड़ों में बण्ट गए है
मेरी बस्ती के लोग
बैठ बारूद पर तिलियां जला रहे हैं
मेरी बस्ती के लोग ।
भाई-चारा भूल बैठे है
नफरत की गांठ ऐंठ बैठे हैं
अपने मुख में कड़वी ज़बान
बरसों से लुकाए बैठे हैं
अड़ौसी-पड़ौसी दुआ-सलाम
भूल बैठे है मेरी बस्ती के लोग
अलग-अलग धड़ों में बण्ट गए है
मेरी बस्ती के लोग ।
रिश्ते-नाते कड़वे हो गए
अपने ही वाले भड़वे हो गए
घर अपनों का जलते देख-देख
बगले झाम्पते तड़वे हो गए
अब तो मान मार्यादा भूल बैठे है
मेरी बस्ती के लोग ।
अलग-अलग धड़ों में बण्ट गए है
मेरी बस्ती के लोग ।
कौन किसी पर करें भरोसा
पे्रम-प्याली में ज़हर परोसा
आनन-फानन मेल मिलाप है
फैला रखा है औपचारिकता का भूसा
जिस माला में फूल गूंथे हो
गोले-बारूद पिरो रहे है
मेरी बस्ती के लोग ।
अलग-अलग धड़ों में बण्ट गए है
मेरी बस्ती के लोग ।
( दि: 01.03.2011)

नास्टेल्जिया

तुलसी,जायसी और मीरा ने नहीं कहा,और
न ही कबीर या मुक्तिबोध ने कहा
बल्कि आप,हम सभी देख रहे हैं
गांधी के तीनों बन्दर भी अञ्जान नहीं है
लेकिन फिर भी
अन्यमनस्क होकर निरपेक्ष भाव से
टकटकी लगाए हुए है
जो हो रहा है उसे
महज़ साक्षी होकर तटस्थ है ।
परिवर्तन चाहे हो या न हो
लेकिन जो रोग घुन् बनकर लग चुका है
वह भीतर तक खोखला कर रहा है
विवश है गांधी और विवेकानन्द
चाहकर भी बदल नहीं पा रहे है मानसिकता
कर्णधारों और ऊंचे पदों पर आसीन
महामहिमों की ।
भीतर तक पूर्वाग्रह से ग्रसित रोग
इतनी आसानी से पीछा नहीं छोड़ता
जब तक कि हम स्वयं अपनी इच्छाशक्ति को
दृढ़ बनाने का संकल्प नहीं लेते ।
समूची मानवता ताक रही है
उस ओर
जहां से उसे पूरी उम्मीद है कि
एक न एक दिन
इस महारोग से मुक्ति मिल जाएगी
और
समरसता की जड़ों में कोपलें फूटेगी
वसुन्धरा हरी-भरी हो जाएगी
मुक्तिबोध एक बार फिर मुस्कराएंगे
कहेंगे
घुन् लगे इस रोग को सींचों मत
इसे समूल नष्ट कर दो
कि लहलहाएं मानवता
चाहे कितनी भी संकटापन्न स्थिति हो
कोई तो इलाज होगा
इस बीमारी का ।

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अतिरिक्त

कुछ महामहिमों के नामों का उल्लेख मिलता है,जो महिमा-मण्डित थे
बाकी सब अतिरिक्त थे ।
अतिरिक्त बहुसंख्यक होते थे
दुनिया के सारे कामधाम करने के बाद
महामहिमों के गोिष्ठयों में शामिल होते थे
उनके भाषणों पर वाह-वाह कर तालियां बजाते
प्रफुिल्लत होते और एकमत होते थे
अतिरिक्तों को ऐसे भ्रम में डाल दिया जाता था कि
उनके बिना महामहिमों का महिमा-मण्डित होना सम्भव नहीं
अतिरिक्त हमेशा ही गोिष्ठयों में शामिल होते थे
इसलिए वे अक्सर महामहिमों के शिकार होते थे।
वे महामहिमों की नज़रों से वंचित कर दिए जाते थे
हाशिए पर डाल कर नज़र-अन्दाज कर दिए जाते थे
अतिरिक्त किसी भी जोखिम से नहीं डरते थे
महामहिम उन्हें बरगालाने से पीछे नहीं हटते थे
वे जताते थे कि अतिरिक्तों के बिना उनका काम चलनेवाला नहीं है
और अतिरिक्त वे सारे काम करते थे
जिनसे महामहिमों की महिमा-मण्डित की बने रहने की पोजिशन बची रहे
अतिरिक्त जानते हैं कि अतिरिक्तों के बिना महामहिमों के सिर पर
महिमा-मण्डित के पद से गिरने का खतरा बना रहता है ।
अतिरिक्त हर सभा-गोिष्ठयों में शामिल होते थे
अतिरिक्त ज्यादातर सिरफिरे महामहिमों की गोिष्ठयों में
बतौर अतिरिक्त नज़र आते रहते थे
अतिरिक्तों को उखाड़ फेकने में महामहिमों भूमिका
बरकरार बनी रहती है।
(2)

अतिरिक्त के बग़ैर
किसी सभा-गोष्ठी की शोभा
नहीं ही होती है ।

यह वो अतिरिक्त है
जो सफलता की गैरण्टी है
मसलन,अतिरिक्तों की उपस्थिति का मतलब
सभा-गोिष्ठयों की सफलता
अतिरिक्तों के बग़ैर
सफल होते नहीं देखी गई
सभा-गोष्ठियां ।

ये जो अतिरिक्त है
समझते हैं कि इनके बिना
सभा-गोष्ठियों की रंगत
नहीं ही बढ़ सकती है।

बुलाए, बिना बुलाए अतिरिक्त की पूरी फौज
हर सभा-गोष्ठी में
देखी जा सकती है ।

भले ही छोड़ना पड़े चाहे जितने जरूरी
घरेलू-पारिवारिक कार्य
महामहिमों की सभा-गोष्ठियों में शामिल होना
वे अपना कर्तव्य समझते थे
सम्भवत: अतिरिक्तों को अतिरिक्तों की श्रेणी में
आता ही होगा आनन्द ।

अतिरिक्त,अतिरिक्त ही कहलाते थे
बाकी जो होते थे महामहिमों की श्रेणी में आते थे
अतिरिक्तों के बिना इनका
महामहिम होना भी कठिन ही था।

यह जो अतिरिक्त है
जनभागीदारी की तरह
अतिरिक्तों की भागीदारी का विकल्प होते थे
जनभागीदारी में
जन की भागीदारी की गैरण्टी होती ही है
कोई जरूरी नहीं अतिरिक्तों की अतिरिक्त-भागीदारी
अतिरिक्तों को ठीक उसी तरह अतिरिक्त माना जाता है
जिस तरह वे अतिरिक्त है,अतिरिक्त की बनें रहें
सारी सफलता के तमगें
महामहिमों के कान्धों पर चस्पा हो जाते थे,और
अतिरिक्तों को अतिरिक्त ही रहने दिया जाता था
अन्यथा किसी दिन अतिरिक्त महामहिम बन जाएंगे
और अतिरिक्त के बजाय महामहिम कहलाएंगे
महामहिम नहीं चाहते थे कि कोई अतिरिक्त
महामहिम बनकर उनकी बगल में विराजमान हो जाएं
अतिरिक्तों को ऐसा सौभाग्य कभी नहीं मिलता था।

अतिरिक्त अन्तत: अतिरिक्त ही बने रहते थे
महामहिमों के कान्धे दमकते रहते थे तमगों से ।

अतिरिक्त,रजतपट के एक्स्ट्रा की तरह
ताजिन्दगी अतिरिक्त की बनें रहते हैं ।

(दिनांक: 22 मार्च 2011 मंगलवार )