शनिवार, 28 जनवरी 2012

पिलोरिया--कहानी --कृष्णशंकर सोनाने

पिलोरिया

‘‘ तुम जिनके लिए प्रज्यापत्य जैसा कठिन व्रत कर रहे हो वो कभी भी तुम्हारे लिए चिन्तित नहीं होती होगी । मेरा कहना मानो तो प्रज्यापत्य व्रत का समापन करा दो ।‘‘
‘‘ नहीं मित्र , हम कदाचित प्रज्यापत्य व्रत को भंग नहीं करेंगे । एक बार किया गया व्रत भंग करना अनुचित तो है ही साथ में अपराध भी है ।‘‘
‘‘ किन्तु मित्र , हम जानते है कि तुम्हारी ‘‘वो‘‘ तुम्हें स्वीकार नहीं करेगी।‘‘
‘‘ हाँ,जानता हूँ लेकिन हमारी महत्वाकांक्षा केवल उनके सान्निध्य की है। उनके निकट रहने से हमें आभास होता है कि मानो पीडि़त हृदय पर उनके कोमल स्पर्श का मखमली मरहम लग गया हो ।‘‘
‘‘कदाचित मित्र, तुम उस पाषाण-हृदय को पहचान जाते ।‘‘
‘‘ तुम्हें मेरे उनके प्रति पाषाण-हृदय कहना उचित नहीं है मित्र ! मेरे ‘‘वे‘‘पाषाण-हृदय नहीं है अपितु वे अज्ञानी है और भीरू भी । संभवतः तुमने मेरे ‘‘उनको‘‘ अभी तक जाना नहीं है।‘‘
‘‘ क्षमा करें मित्र ! लेकिन तुम्हारे ‘‘वो‘‘ क्या नाम है उनका ?‘‘
‘‘ पीएल ,बस, इतना ही समझ लो ।‘‘
‘‘ हाँ, पीएल ही सही लेकिन वे तुमसे पे्रम नहीं करती ।‘‘
‘‘ जानता हूँ मित्र ,हमारी पीएल हमसे पे्रम नहीं करती किन्तु उनके प्रति हमारी आसक्ति,आकर्षण और समर्पण आखिर यह सब.......‘‘
अविनाश की आँखों में अनायास आँसू भर आये । कण्ठ भर जाने से अविनाश आँसुओं को रोक नहीं पाये । अविनाश ,ब्रह्मस्वरूप के कांधों पर सिर रखकर फूट-फूटकर रो पड़े।
दो वर्ष पूर्व अविनाश अपने निजी आवास के सिलसिले में कल्पतरू अपार्टमेन्ट देखने के लिए अपने मित्र ब्रह्मस्वरूप के साथ गर्मियों के दिनों में गये थे । कल्पतरू अपार्टमेन्ट के व्दितीय तल पर जिस गृह को देखना था ,ठीक उसी के ठीक सामने पीएल रहा करती थी । संयोगवश उन दोनों ने पीएल के घर ही जाकर सम्पर्क किया था । कहते है कि विधि का विधान ही निराला होता है । कौन जातना था कि अविनाश,पीएल के प्रति मोहित हो जाएंगे और अपने तन मन की सुधि खो बैठेंगे । पहली ही मुलाकात में अविनाश, पीएल को निर्निमेष देखते रह गए थे । मानो पीएल को युगों-युगों से जानते हो । जैसे युगो-युगों से अविनाश को पीएल की तलाश थी और वह आज अविनाश के सामने साक्षात उपस्थित थी ।
‘‘क्या देख रहे हैं आप ?‘‘
इस प्रश्न का उत्तर अविनाश के पास नहीं था फिर भी उसने साहस किया ।
‘‘ मुझे लगता है आपको बहुत पहले से जानता हूँ लेकिन कैसे ,मुझे ज्ञात नहीं ।‘‘
पीएल सिर्फ मुस्करा दी । अविनाश को पीएल के मुस्कराने से लगा जैसे सावन के महिने में फूलों की सुखसद बरसात हो आई हो ।
‘‘ अच्छा जी ! जाने की आज्ञा दीजिए । नमस्ते !!‘‘
‘‘ नमस्ते ! फिर कभी आइयेगा ।‘‘
पीएल करबद्ध हो मुस्करा दी । मोटरसाइकिल पर सवार होते समय ब्रह्मस्वरूप विस्मित थे कि आज अविनाश इतने प्रसन्न क्यो है ? ब्रह्मस्वरूप,अविनाश की मनोभावनाओं को समझने का प्रयास कर रहे थे ।
‘‘ बीएस ! जानते हो इस सुन्दरी को मैं कब से जानता हूँ ?‘‘
‘‘युगों-युगों से , है न !‘‘
‘‘ तुम कटाक्ष कर रहे हो लेकिन यह अटल सत्य है कि मैं उनको युगों से जानता हूँ । संभवतः अब तक मुझे इनकी ही तलाश थी । एक बात कहूँ ?‘‘
‘‘ कहिए ।‘‘
ब्रह्मस्वरूप को अविनाश बीएस कहा करते थे । क्योंकि ब्रह्मस्वरूप बहुत ही अटपटा नाम लगता था । बीएस का प्रश्न सपाट था किन्तु अविनाश के हृदय में आनन्द की हिलोर उठ रही थी ।
‘‘ अब हमारी हार्दिक अभिलाषा है कि हम इनके निकट आकर अपना सम्पूर्ण जीवन इनके आंचल में व्यतीत कर दें ।‘‘
और अविनाश ने ऐसा ही किया । जिस किसी तरह से कल्पतरू अपार्टमेन्टस में ठीक पीएल के गृह के सामने अपने लिए एक गृह आवंटित करवा लिया ।
समय व्यतीत होते पता नहीं लगा । आहिस्ता-आहिस्ता अविनाश अपने हृदय में युगों से छिपी अभिलाषाओं को पीएल पर निछावर करने लगे लेकिन अविनाश ने पीएल पर अपने हृदय में लुके-छिपे प्रेम को उजागर नहीं होने दिया । अविनाश को भय था कि पीएल के समक्ष हृदय की भावनाओं को उजागर कर देने से पीएल का सान्निध्य विछिन्न हो जायेगा । समय के साथ-साथ अविनाश, पीएल के बहुत निकट पहुँच गए।
‘‘ आप मेरा इतना अधिक खयाल क्यों रखते हो अविनाश ?‘‘
पीएल ने एक दिन अनायास अविनाश से प्रश्न कर ही लिया । अविनाश चुप रहे । वे मन ही मन सोचने लगे,यदि पीएल के समक्ष हृदय के उदगार प्रगट कर दिए तो भय है कि पीएल इन कोमल रिश्तों को दुत्कार दें । वे संक्षिप्त सा उत्तर देकर रह गए-
‘‘ मुझे आपकी सेवा करना अच्छा लगता है । मेरा अपना है ही कौन जिनकी सेवा कर मैं अपने हृदय का भार कम कर सकूँ ।‘‘
अविनाश के उत्तर से पीएल के चेहरे पर प्रसन्नता की रेखाएं उभर आई । वे धन्य धन्य हो गए कि पीएल उनकी सेवा से प्रसन्न है ।
जिस पे्रम में सेवा भावना,समर्पण की अटूट अभिलाषा और त्याग का पुट सम्मिलित होता है, वह पे्रम वास्तव में ईश्वर का महाप्रसाद होता है । ऐसा समर्पित प्रेम प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त होना दुर्लभ है । कहा जाता है कि पे्रम कभी किया नहीं जाता अपितु हो जाता है । प्रेम की कोई आयु नहीं होती । किसी भी आयु में किसी के भी प्रति हृदय के किसी कोने में पे्रम के अंकुर प्रस्फुटित हो सकते हैं । अविनाश के साथ ऐसा ही हुआ । उन्हें क्या पता था कि जिन्दगी के किसी मोड़ पर अनायास पीएल से भेंट होगी और हृदय के किसी कोने में पे्रम का यह नन्हा सा पौधा स्नेह के आंचल में लहलहाने लग जाएगा ।
अप्रत्यक्ष रूप से पे्रम के अंकुर अविनाश और पीएल दोनों के हृदय में
धीरे-धीरे पनपते रहे । प्रत्यक्ष रूप से पे्रम प्रदर्शित करना दोनों के लिए दुष्कर था । पीएल के लिए भी मर्यादा का उल्लंघन करना अत्यन्त कठिन था । दोनों अपनी कोमल भावनाओं को प्रत्यक्ष करने में संकोच करते रहे । लेकिन सृष्टि के उपवन में खिले पुष्प की सुगन्ध को कौन बांध सकता है। उपवन में खिले पुष्प की सुगन्ध चारो दिशाओं मेें फैलना स्वाभाविक है और ऐसा ही हुआ । पीएल की सखी अनिता को अविनाश के प्रणय निवेदन का आभास हो गया । धीरे-धीरे यह सुगन्ध निकट सम्बन्धियों में फैलना प्रारंभ हो गई। प्रणय ज्वार को रोकना कठिन होता है । प्रणय की अग्नि ऐसी होती है, उसे जितनी हवा दोगे वह उतनी ही अधिक तीव्र होती जाती है। बुझने का नाम ही नहीं लेती ।
वसन्त अपने पूर्ण यौवन के साथ ऋतु विहार करने लगा । भंवरे पुष्पों के मकरन्द का पान करने में तन्मय हो गए । दिनकर अपनी किरणंे सम्पूर्ण प्रकृति के अंगों को स्पर्श कर फैला रहा था । मन्द-मन्द मलयाचल की मधुर बयार हृदय को उन्मादित किये जा रही थी । पलाश अपने पूर्ण यौवन को बिखेर रहा था और अविनाया-पीएल का तृषित व्याकुल हृदय मिलन के लिए व्याकुल हो रहा था किन्तु अपने तृषित हृदय के उद्गारों को प्रिय के समक्ष कैसे प्रगट करें ? इसकी पीड़ा बार-बार हृदय को कचोटने लगी । अपने ही बिल्कुल निकट बैठी पीएल के केशपाश में अंगुलियाँ फेरते हुए अविनाश ने अपने प्रिय के माथे पर चुम्बन ऐसे जड़ दिया जैसे कोई निष्पाप पिता अपनी पुत्री के कपोलों पर चुम्बन जड़ देता है। मर्यादाओं का उल्लंघन करना अविनाश के बस से बाहर था तो पीएल अविनाश के कोमल स्नेहमय स्पर्श को पृथक करने में असमर्थ थी। पीएल मुस्करा दी ।
‘‘ अविनाश ! मेरी मानो तो तुम किसी अच्छी सी लड़की से विवाह कर लो । बहुत अच्छा रहेगा ।‘‘
‘‘ नहीं जी , मन नहीं चाहता । बस एक निवेदन है ।‘‘
‘‘ वह क्या ?‘‘
‘‘ मुझे अपने आंचल में ही रहने दो । मेरे लिए इतना पर्याप्त है।‘‘
‘‘ तुम पागल हो गए हो । मै तुम्हारा विवाह करवा देती हूँ ।‘‘
‘‘ किन्तु आपके समान कोई नहीं मिलेगा ।किल्कुल आपके जैसी..‘‘
पीएल के अधरो ंपर इन्द्र्रधनुष के समान लम्बी मुस्कान उभर आई और वह खिलखिला पड़ी ।गुनगुनाने लगी -
‘‘ आप जैसा कोई मेरी जिन्दगी में आए तो बात बन जाएं ...‘‘?
‘‘ आपने ठीक ही कहा, न कोई आपकी जैसी लड़की मिलेगी और न हम विवाह करेंगे ।‘‘
पीएल ,अविनाश की इस बात पर खिलखिलाकर हंस पड़ी ।
‘‘ आप अपने हृदय की भावनाओ को अच्छी तरह प्रस्तुत करते हो लेकिन आप मुझे नहीं पा सकते ।‘‘
‘‘ कोई बात नहीं । आपके आंचल का सहारा ही मेरे लिए पर्याप्त है।‘‘
भावनाओं के आवेश में अविनाश ने अनायास झुककर पीएल के चरणों पर अपने अधरों को रखकर चूम लिया ।
‘‘ आप मुझसे इतना पे्रम करते हो लेकिन मैं विवाहिता हूँ और जो उचित नहीं उसे कैसे स्वीकार कर सकती हूँ ।‘‘
‘‘ हमें केवल आपके आंचल का सहारा चाहिए और कुछ भी नहीं । हम सारा जीवन आपके सहारे व्यतीत कर देंगे ।‘‘
पीएल मोम की तरह पीघल गई । अविनाश के हाथों को अपने हाथंो में ले सान्त्वना भरे लहजे में बोली-
‘‘मैं सारा जीवन आपके साथ हूँ अवि....आप चिन्ता न करें लेकिन मुझे भी विवाहित जीवन का पालन करना होगा ।‘‘
‘‘ हमें कोई आपत्ति नहीं । आप जैसे रखोगे वैसे हम रहेंगे ।‘‘
‘‘ तो फिर मेरा कहना मानना होगा ।‘‘
‘‘ हम आपके प्रत्येक आदेश का पालन करेंगे ।‘‘
अपने हाथों को पीएल के हाथो से अविनाश पृथक नहीं करना चाहते थे । इसलिए उन्होंने पीएल के हाथांे को अपने वक्ष से लगा लिया और आँखें मूँद ली । अनायास अविनाश की आँखांे से अजस्र अश्रु धाराएं बह निकली ।
समस्त विश्व में पे्रम ही एक ऐसा तत्व है जो किसी बन्धन, किसी मर्यादा, किसी विधान किसी जाति और धर्म और बुद्धि और ज्ञान को स्वीकार नहीं करता । चाहे मीरा-श्याम हो,बाजीराव-मस्तानी हो अथवा बच्चन-तेजी हो । पे्रम अपने विशाल हृदय में निर्भिकता और अत्यन्त कोमल होकर पुष्प की भांति तूफान में वक्ष ताने खड़ा रहता है ।
यह भी अटल सत्य है कि सच्चे पे्रमी कभी भी मिल नहीं पाते । इतिहास साक्षी है कि बाजीराव-मस्तानी, हीर-रांझा, शीरी-फरहाद और पुरूरवा-उर्वशी कभी एक दूसरे को पा नहीं सके । यही स्थिति अविनाश और पीएल के सामने श्ूार्पणखा के समान विकराल मुख पसार कर खड़ी हो गई।.......
प्रातः रवि की प्रथम किरणों के साथ अविनाश आज पीएल के समक्ष अपने हृदय की अभिलाषा अभिव्यक्त करने के उद्देश्य से फूलों का एक सुन्दर गुलदस्ता लिए पहुँच गया । पीएल पिछली रात से अस्वस्थ्य होने के कारण शैया पर लेटी हुई थी । अविनाश गुलदस्ता पीएल के पैरों पर रख अधरों से पैरों को चूम लिया । पैरों पर स्पर्श का आभास पा पीएल ने धीरे-धीरे नेत्र खोले । सामने अविनाश को खड़ा पाया ।
‘‘ आपने यह क्या किया ?‘‘
‘‘ अपने भगवान के श्रीचरणों में अपना हृदय प्रस्तुत किया है ।‘‘
‘‘ पागल हो , पूरे पागल ।‘‘
अविनाश मुस्करा भर दिए और पीएल के सिरहाने बैठ केशों में अंगुलियाँ फेरने लगे ।
‘‘ ओह ! आपको तो ज्वर है ।‘‘
‘‘ नहीं ,थोड़ी सी हरारत है , कम हो जाएगी । सिर में पीड़ा हो रही है।‘‘
‘‘ लाओ , सिर दबा दूँ ।‘‘
अविनाश आहिस्ता-आहिस्ता पीएल के माथे को दबाने लगे । पीएल नेत्र मूँद निश्चेष्ट लेटी रही । बहुत देर तक अविनाश,पीएल के माथे को दबाते रहे ।
‘‘ लाओ पैर .....‘‘
इन्कार किए बग़ैर पीएल ने अपने दोनों पैर अविनाश की ओर बढ़ा दिए । अविनाश धन्य हो गए । पीएल के श्रीचरणो को अपने गोद में रख लिया । थोड़ा झुके और आहिस्ता से पीएल के पैरों को चूम लिया । पीएल ने कोई प्रतिकार नहीं किया । वह निश्चेष्ट लेटी रही । अविनाश स्वयं को धन्य समझने लगे । आत्मा से किया गया पे्रम कभी भी कलुषित भावनाओं को जन्म नहीं देता अपितु निश्चल पे्रम सेवा,त्याग,समर्पण से ओतप्रोत होता है । हृदय से किया गया पावन पे्रम व्यक्ति को भावविभोर कर देता है और उसे परमानन्द की उपलब्धि होने लगती है । अविनाश के हृदय में पीएल के प्रति प्रगाढ़ पे्रम की गंगा उमड़ने लगी । दूसरी ओर पीएल के हृदय में सूक्ष्म रूप से अनियंत्रित पे्रम का ज्वार उमड़ उठा । अविनाश का पावन पे्रम प्रिय के चरणों को वक्ष से लगाकर धन्य-धन्य हो रहा था तो पीएल का पे्रम अविनाश को ललकार रहा था । कहा जाता है कि नारी में पे्रम का अन्तिम बिन्दु काम होता है। लेकिन अविनाश पावन पे्रम के उन्माद में एक नारी के कामोन्माद को पहचान नहीं पा रहे थे । वे तो पे्रम पूजन में इतने मस्त थे कि एक औरत एकान्त में पुरूष के संसर्ग में लिप्त है किन्तु पुरूष को प्रकृति की अनौखी लिप्सा का आभास नहीं । पवित्र पे्रम अपनी कसौटी पर सत्य ही उतरता है ,चाहे नारी जो कुछ भी समझे । क्या यह अविनाश की जीत है अथवा हार ? विधाता ही जाने किन्तु अविनाश अपने पे्रम को कलुषित नहीं होने देना चाहते थे । पे्रम में हार-जीत समान होती है ।
पावन पे्रम की सदा विजय होती है और वह सर्वोच्च शिखर पर पहुँचता है । जबकि इसके विपरीत लेशमात्र की कमी होने पर प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न हो सकती है । किन्तु काम-रति के खेल में पावन पे्रम का कोई स्थान नहीं होता । नियति के विधान के अनुसार प्रकृति ने प्रतिकूल खेल रचना प्रारंभ कर दी । अविनाश और पीएल के बीच भूचाल उत्पन्न हो गया ।
भूचाल,भूमि-धरातल को यहाँ तक कि पे्रम के मूलाधार को झटका दे गया और सूखा दिया उन खिलते हुए पुष्पों को जो उपवन में मधुर बयार बिखेर रहे थे और मदमस्त भौंरों को उन्मादित कर रहे थे । हिला दिया उस पूजारी को जो अपने देव की पूजा मेें मस्त था और समूचे विश्व को विस्मृत कर रहा था । भक्त को भगवान से पृथक करने में असुरी शक्तियों का जितना बल होता है उतना बल पे्रमियों को पृथक करने में अविश्वसनीय तत्वों का होता है।
अर्पणा का पदार्पण असुरी शक्तियों को प्रबल करने में सहयोग प्रदान करने लगा । पूजारी को अपने देव से पृथक करने में अर्पणा ने विशेष भूमिका निभाई। पीएल के प्रति अविनाश की प्रणयमयी कोमल भावनाओं को अर्पणा भलिभांति जानती थी जिसके कारण अविनाश की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने लगी । परिणामस्वरूप पीएल आहिस्ता-आहिस्ता अविनाश से दूर रहने लगी लेकिन यह दूरी हृदय की दूरियों को कम न कर सकी ।
एक शाम जब अविनाश बच्चों को पढ़ा रहे थे ,पीएल उनके बिल्कुल पास बैठी हरी सब्जियाँ काट रही थी । बीच-बीच में अविनाश से बातें भी कर रही थी ।
‘‘ अवि ! तुम मेरे पीछे क्यों पड़े हो ?‘‘
‘‘क्योंकि हम आपसे पे्रम करते हैं । अपने पावन हृदय से आपको पूजते हैं लेकिन आपसे चाहते कुछ नहीं । केवल आपके आंचल के सहारे रहना चाहते हैं ।‘‘
‘‘ जो संभव नहीं है आप उसे नहीं पा सकते ।‘‘
‘‘ मुझे पाने की कामना नहीं है लेकिन ऐसी कोई बात है तो एक दिन हम आपक पा ही लेंगे ।‘‘
‘‘ ऐसा कभी नहीं हो सकता ।‘‘
‘‘ चिन्ता की कोई बात नहीं । लेकिन हमें अपने से दूर नहीं करना । बस यही प्रार्थना है । यदि स्वीकार नहीं कर सकते हो तो हमें ज़हर दे दो । आपसे बिछड़ने से बेहतर होगा हम मृत्यु को गले लगा लें ।‘‘
अविनाश का कण्ठ अवरूद्ध हो गया और नेत्र भर आएं। उनका हृदय चाह रहा था,इस वक्त वे पीएल के आंचल में अपना मुख छिपाकर फूट-फूटकर रो लें किन्तु उनका साहस नहीं हो पाया । वे रूमाल से अपने आँसू पोंछते हुए बाहर निकल गए ।
इस घटना के उपरान्त लम्बी अवधि तक अविनाश कभी पीएल के सामने नहीं पहुँचे । अपने ठीक सामने के मकान में रहने के बाद भी अविनाश,पीएल को स्पर्श करना तो दूर वे दो शब्द बतियाने के लिए भी व्याकुल होने लगे ।
अर्पणा ने अविनाश की इस कमजोरी का लाभ उठाने में कोई नहीं की । अर्पणा ने पीएल से घनिष्ठता बढ़ा ली । अविनाश सदैव पीएल के खयालों में खोये-खाये अर्पणा से पीएल के विषय में बातें करते रहते । अर्पणा मनगढ़न्त बातें बनाकर पीएल के प्रेम की दुहाई दिया करती । अत्यन्त संवेदनशील होने के कारण अविनाश,पीएल का पे्रम और निकटता पाने के लिए लालायित होने लगे । छटपटाने लगे । एकान्त में बिफर-बिफर कर रोने लगे ।
‘‘ मैं पीएल के लिए प्रज्यापत्य व्रत करना चाहता हूँ अर्पणा ।‘‘
‘‘ यह तो बहुत कठिन व्रत होता है।‘‘
‘‘ हाँ, होता है लेकिन पीएल रूठ गई है उसे मनाने के लिए यह व्रत करना होगा ।‘‘
‘‘ क्या तुम यह व्रत कर पाओगे ।‘‘
‘‘ मैं अपनी पीएल के लिए इससे भी कठिन कोई व्रत होगा तो उसे भी करना चाहूँगा । चाहे मेरे प्राण निकल जाए । इसकी मुझे तनिक भी चिन्ता नहीं ।‘‘
‘‘ जैसा तुम उचित समझो ।‘‘
अविनाश ने बारह दिन का प्रज्यापत्य व्रत प्रारंभ कर दिया। परिणामस्वरूप अविनाश का शरीर अत्यन्त कमजोर हो गया । नेत्र भीतर धंस गए । वक्ष की पसलियाँ बाहर निकल आई । मुखमण्डल निश्तेज हो गया । कुछ ही समय में अविनाश मृत देह की तरह हो गए । शैया पर अर्ध लेटी अवस्था में अविनाश छत की ओर निर्निमेष निहारा करते । उस दिन उनके मित्र बीएस उनके पास बैठे थे ।
‘‘ तुमको इतना कठिन व्रत नहीं करना चाहिए था । आखिर इस व्रत से तुमको क्या लाभ हो सकता है।‘‘
अविनाश के सजल नेत्रों से अश्रु धाराएं बह निकली ।
‘‘ एक बात कहूँ अविनाश ! यदि तुम अन्यथा न समझो ?‘‘
‘‘ क्या कहना चाहते हो । मैं कदाचित अन्यथा नहीं लूँगा ।‘‘
‘‘ तुमको रोग हो गया है भयंकर रोग,जिसकी कोई चिकित्सा नहीं है।‘‘
‘‘ भयंकर रोग ! कौन सा रोग ?‘‘
‘‘ तुमको पीएल का पिलोरिया हो गया है।‘‘
‘‘ पिलोरिया .!‘‘
‘‘ हाँ ! पीएल का पिलोरिया । मैं नहीं जानता पीएल का भावार्थ क्या होता है । लेकिन यह सच है।‘‘
‘‘क्या तुम पीएल का भावार्थ जानना चाहते हो ?‘‘
अविनाश के चेहरे पर वेदना की रेखाएं उभर आई जिसे बीएस अच्छी तरह पढ़ रहे थे किन्तु अविनाश की विकट मानसिक दशा के समक्ष वे चुप रहे ।
‘‘ तो सुनो ,पीएल का शब्दार्थ पे्रमलता होता है । पी फार पे्रम और एल फार लता । पीएल यानी पे्रमलता । यह उनका नाम है बीएस ।‘‘
‘‘ अर्थात् तुम्हारे मकान के सामने.‘‘
‘‘ हाँ ,मैंने तुमको कहा था । शायद मुझे युगों-युगों से इनकी ही तलाश थी लेकिन इस जनम में भी.‘‘
अविनाश इतना कह चुप हो गए ।?
‘‘ अविनाश ! तुम पे्रम में असफल हो गए हो । मैं जानता हूँ तुम्हारा पे्रम सच्चाईयों को छूनेवाला पे्रम है लेकिन खैर, मेरी एक सलाह मानोगे ?‘‘
‘‘ पे्रम सलाह का मोहताज नहीं होता बीएस ।‘‘
‘‘ तो तुम यों ही घुल-घुलकर मर जाओगे पीएल के पिलोरिया में....‘‘

और यह सत्य घटित हो गया । अविनाश, पीएल की याद में घुल-घुलकर मृत्यु को प्राप्त हो गए । कहते हैं आज भी अविनाश की व्याकुल आत्मा पीएल यानी पे्रमलता के वियोग में कल्पतरू अपार्टमेंट के आसपास भटकती रहती है।
0

आदमी के हक में..संकलन से--कृष्णशंकर सोनाने

छत

जिस तरह तन को ढंकने के लिए
कपड़ों का होना जरूरी है ।
जिस तरह
लाज रखने के लिए
शर्म का होना लाजमी है ।
जिस तरह
रहस्य ढांकने के लिए
गोपन का होना आवश्यक है ।
जिस तरह
सिर छिपाने के लिए?
छत का होना जरूरी है ।
दीवारों का होना
कोई मायने नहीं रखता
खिड़की दरवाज़ों के बिना
काम चलाया जा सकता है ।
लेकिन
बहुत ही नामुमकिन है
जीवन का
गुजन-बसर होना
छत के बिना ।
00
8-दरवाज़ा

बिना दरवाजे के कोई
घर नहीं बनता ।
बाहर से दरवाज़ा
बन्द करना जरूरी नहीं है
घर की दहलीज
पार करना अपशकुन माना जाता है ।
अहं की सांकल,मद की नामपटट्ी
मोह का ताला देख
बिदक जाते हैं लोग
ऐसे में बन्द रखोगे दरवाज़ा तो
दस्तक देंगे ही लोग ।
लोगों के गले में ही
लटके होते हैं दरवाज़े
जहाँ भी जाते हैं
साथ लिए चलते हैं ।
मैं घर बनाऊँ ना बनाऊँ
दरवाज़े में सांकल ताला और
नामपट्टी नहीं होगें
खिड़कियों का तो सवाल ही नहीं
सपने सारे आकर रूक जाते हैं बाहर
खिड़की और दरवाज़ों के
जब भीतर और कोई होता है
और पहरा दे रहे होते
सांकल,ताले और नामपट्टी ।
दरवाज़ों का संबंध होता है
खुले आसमान से
उड़ती रहती जिसमें
राजहंस सी धवल चिडि़या
और सटे होते हैं आंगन
पेड़-पौधे फूल पत्तियाँ
और खिलखिलाते रहते हैं बच्चे ।
दरवाज़े सपने देखते हैं
रख जाए कोई आकर
टिमटिमाता हुआ दीपक
उनकी चैखट पर ।
दरवाज़े होने से
अन्तराल बढ़ जाता है
तेरे,मेरे और उनके बीच
बिछ जाती सन्नाटे की लम्बी चादर
जब कभी तलाश
करनी हो अपनी
अपने से अलग हटकर अलहदा
तोड़ना होगा हमें
घर के सारे दरवाज़े
खोलना होगा हमें
घर की सारी खिड़कियाँ ।
0

आदमी के हक में..संकलन से

बस्ती के लोग

अलग-अलग धड़ों में बंट गए है
मेरी बस्ती के लोग
बैठ बारूद पर तिलियाँ जला रहे हैं
मेरी बस्ती के लोग ।
भाई-चारा भूल बैठे है
नफरत की गांठ ऐंठ बैठे हैं
अपने मुख में कड़वी ज़बान
बरसों से लुकाए बैठे हैं
अड़ौसी-पड़ौसी दुआ-सलाम
भूल बैठे है मेरी बस्ती के लोग
अलग-अलग धड़ों में बंट गए है
मेरी बस्ती के लोग ।
रिश्ते-नाते कड़वे हो गए
अपने ही वाले भड़वे हो गए
घर अपनों का जलते देख-देख
बगले झांपते तड़वे हो गए
अब तो मान मार्यादा भूल बैठे है
मेरी बस्ती के लोग ।
अलग-अलग धड़ों में बंट गए है
मेरी बस्ती के लोग ।
कौन किसी पर करें भरोसा
पे्रम-प्याली में ज़हर परोसा
आनन-फानन मेल मिलाप है
फैला रखा है औपचारिकता का भूसा
जिस माला में फूल गूँथे हो
गोले-बारूद पिरो रहे है
मेरी बस्ती के लोग ।
अलग-अलग धड़ों में बंट गए है
मेरी बस्ती के लोग ।
( दिः 01.03.2011)

59-नास्टेल्जिया

तुलसी,जायसी और मीरा ने नहीं कहा,और
न ही कबीर या मुक्तिबोध ने कहा
बल्कि आप,हम सभी देख रहे हैं
गाँधी के तीनों बन्दर भी अंजान नहीं है
लेकिन फिर भी
अन्यमनस्क होकर निरपेक्ष भाव से
टकटकी लगाए हुए है
जो हो रहा है उसे
महज़ साक्षी होकर देख रहे है ।
परिवर्तन चाहे हो या न हो
लेकिन जो रोग घुन् बनकर लग चुका है
वह भीतर तक खोखला कर रहा है
विवश है गाँधी और विवेकानन्द
चाहकर भी बदल नहीं पा रहे है मानसिकता
कर्णधारों और ऊँचे पदों पर आसीन
महामहिमों की ।
भीतर तक पूर्वाग्रह से ग्रसित रोग
इतनी आसानी से पीछा नहीं छोड़ता
जब तक कि हम स्वयं अपनी इच्छाशक्ति को
दृढ़ बनाने का संकल्प नहीं लेते ।
समूची मानवता ताक रही है
उस ओर
जहाँ से उसे पूरी उम्मीद है कि
एक न एक दिन
इस महारोग से मुक्ति मिल जाएगी
और
समरता की जड़ों में कोपलें फूटेगी
वसुन्धरा हरी-भरी हो जाएगी
मुक्तिबोध एक बार फिर मुस्कराएंगे
कहेंगे
घुन् लगे इस रोग को सींचों मत
इसे समूल नष्ट कर दो
कि लहलहाऐ मानवता
चाहे कितनी भी संकटापन्न स्थिति हो
कोइै तो इलाज होगा
इस बीमारी का ।
( 03.03.2011) गुरूवार 6.00प्रातः
रिश्ते

दोस्त तो मिलते नहीं
दुश्मन मिल जाय बहुत बड़ी बात है
अपने तो गले लगते नहीं
गले,पराए लग जाए
सबसे बड़ी बात है
तुम तो खालिस लेन देन की बातें करते हो
कुछ दिया तो कहते हो
मेरे अजीज है आप
कुछ लिया तो कहते हो
दुश्मन मेरे लगते हो ।
दोस्त तो तुम लगते नहीं
ना ही तुम अपने लगते हो
दुश्मन बन जाओ तो बहुत अच्छी बात है
कम अज कम दुश्मनी का रिश्त तो कायम रहेगा ।
00

आदमी के हक में..संकलन से

चाँद

मेरे जागने से लेकर
सोने तक
वह मुस्तैद रहता है
मेरे साथ ।
जब मैं
सो रहा होता
वह जागते रहता है
जैसे पहरा दे रहा हो
जब मैं
चल रहा होता
वह मेरे साथ-साथ चलने लगता है
मेरे ठहरने पर
वह भी ठहरता है
मैं भले ही थोड़ा सुस्ता लूँ
वह बराबर सजग रहा करता है
सुस्ताना उसने सीखा नहीं
लेकिन जब मैं
जाग जाता हूँ
वह सो जाता है
जागने की तैयारी में
क्योंकि उसे पता है
मेरे सो जाने पर
उसे पहरा देना होगा
मुस्तैद होकर ।
( दिनांक 21.09.2010)

चाहने पर

चाहने पर
कभी चाहा हुआ नहीं होता
अनचाहा हो जाता है।
चाहने पर
यदि चाहा हुआ हो जाय तो
हम कहते हैं
यह तो होना ही था
इसलिए हो गया ।
चाहने पर
न तो राम का अभिषेख हुआ
न ही पाण्डवों को राज्य मिला ।
चाहने पर
कभी नहीं बन पाती कोई कविता
कोई अच्छी सी कहानी
कोई आख्यान ।
चाहने पर
कुछ होना होता तो हो जाता
जैसे कोई राजनेता
लुच्चा,लफंगा,चिढ़ीमार ।
( नवम्बर,2010)

प्रेम करने के लिए

पे्रम करने के लिए
एक प्रिय का होना जरूरी है
जिसकी मांग में
भरा जा सके सिन्दूर
मेरी चुटकी में भरा सिन्दूर
किस मांग में भरूँ
न मैं किसी का प्रिय हूँ
न कोई मेरा प्रिय बना
मुझे तलाश है
एक अदद प्रिय की ।
( 31.12.2010)

जरूरत से ज्यादा

अक्सर लोगों की यह आकांक्षा रहती
कि उनके पास यह भी होता तो
कितना अच्छा होता,या
वह भी होता तो कितना अच्छा होता
इसे और उसे पाने की उनकी आकांक्षा
कुलांचे मारने लगती है,और
उसे पाने के लिए
जी जान से ज्यादा मेहनत करने लगते हैं
और अन्ततः वे उसे पा ही लेते हैं
हालांकि ऐसा नहीं कि
उनके पास वह चीज पहले नहीं थी
लेकिन उनकी आकांक्षा थी
जो चीज उनके पास है
वह बहुत कम है
शायद उनकी जरूरत इससे ज्यादा की है
और यह चीज जरूरत से ज्यादा है
जरूरत से ज्यादा चीज ज़हर बन जाती है।
( दिनांक 03.03.2011)

आदमी के हक में...संकलन से

विश्वास

वह इतना विश्वास करने लगती है कि
उसके विश्वास पर विश्वास
होने लगता है
और उसके विश्वास के विश्वास पर
विश्वास करना ही पड़ता है ।

उसके विश्वास में
इतना विश्वास है कि
अ-विश्वास का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता ।

आखिर उसका विश्वास
इतना विश्वसनीय होता है कि
उस पर विश्वास करना लाजमी है ।

विश्वास की डोर
विश्वास पर टिकी है
देखना
कभी टूटने न पाए ।
000
अम्मा

सुबह-सबेरे चार बजे उठती है अम्मा
बर्तन-भाण्डे मांजने के बाद
नल में पानी आते ही
भर लेती है घर के सारे बर्तन भाण्डे ।

ताजे-ताजे पानी से
हाथ मुँह धोकर
दो लोटा निरा पानी पी लेती है
कहती है इससे हाजत अच्छी होती है ।

गैस-चूल्हे पर चाय रखने के बाद
आवाज़ देकर जगाती है
भोर हो रही है
उठो और मुँह-हाथ धो लो बेटे
चूल्हे पर चाय चढ़ा दी है ।

सारा दिन खटकती रहती है अम्मां
कभी कपड़े सूखाने डालती है
कभी दालें,बडि़यां और अचार को दिखाती है धूप
बच्चों के कपड़े लत्ते तह कर रखती है ।

दोपहर तक थक जाती है अम्मां
सिरहाने तकिया रख थोड़ा सुस्ताने लगती है
उठती है बराबर चार बजे
चाय का टेम हो गया है बेटी
घण्टे भर बाद तेरा पप्पा दफ्तर से आएगा
नाश्ते-पानी का बन्दोबस्त कर बेटी ।

अम्मां सुबह से शाम तक यूं ही खटकते रहती है
सारी चिन्ताओं जिम्मेदारियों को अपने सिर लेकर
अपने कत्र्तव्यों का निर्वहन करते हुए ।

जब से ब्याह कर आई है अम्मां
पल भर चैन से बैठी नहीं होगी
रिश्तों की चादर ओढ़े
सबकी खबर लेते हुए ।
00

औरत का स्वर्ग

लड़की होना जितना कठिन है
उससे ज्यादा कठिन है
औरत होना ।
लड़की और औरत होने में
बहुत ज्यादा फर्क नहीं है
लड़की तब तक लड़की रहती है
जब तक वह औरत नहीं बन जाती ।
लड़की की परिभाषा और
औरत की परिभाषा भी अलग-अलग होती है
जैसे,
लड़की आग का गोला होती है,तो
औरत बर्फ की शीला होती है
लड़कियाँ जल्दी भभक जाती है
जबकि
औरत धीरे-धीरे पिघलने लगती है ।
लड़की की उष्मा और
औरत की शीतलता में
उतना ही फर्क है
जितना पे्रमिका की उष्मा और
माँ की शीतलता में ।
लड़की को स्पर्श करते ही
झटके से करंट लग जाता है
लेकिन
औरत का स्पर्श बड़ा सुखदायी होता है ।
लड़कियों का स्वर्ग यहीं होता है
वह महकने लगती है
वह चहकने लगती है
बागों,उपवनों और वसन्त में
सुगन्ध बिखेरते हुए ।
औरत का स्वर्ग देखने में नहीं आया
जबकि वह
स्वर्ग रचती है सारी दुनिया के लिए
सिवाय खुद को छोड़कर ।
00

आदमी के हक में...संकलन से

सुबह में लहराती सुबहें

कोई मेनका या
उर्वशी ही होगी
प्रातः की शीतल मधुर समीर में
घर से निकलने पर
चेहरे पर बांधे हुए दुपट्टा
बचाने के लिए सुन्दरता ।,

कहीं झुलसा न दें
शीतल मधुर बयार
इन मेनका उर्वशियों के
मासूम चेहरे ।

हेमा,माधुरी,श्रीदेवी
रेखा हो या ऐश्वर्या
नहीं बांधती होगी दुपट्टा
झुलसती धूप में या
गर्म हवाओं के थपेड़ों में
अपने लावण्यमयी चेहरे पर ।

कोई खतरा नहीं सुन्दरता को
चाहे हो कैसा भी मौसम ।
रानी रूपमती हो या
हो जीनत अमान
दुपटट्े के पीछे का चेहरा
सामान्य का सामान्य ही रहेगा ।

मैं सुन्दर हूँ, का भ्रम पाले
यहां से वहां
गाडि़यों पर हवा में
बेपरवाह
लहराती सुबहें
0

आग से खेलती आग

कितनी ही आग देखी है
धधकते भभकते हुए
आग के भीतर आग
आग के बाहर आग
आग के दरमियान आग ।
कहते हैं
लड़कियाँ आग होती है
धीरे-धीरे जलना शुरू करती है
लेकिन जब वह जलने लगती है
आग बन जाती है
शायद इसीलिए
वह आग से खेलती है,और
आग उससे खेलती है
चाहे उसे
लड़की कह लो
चाहे आग ।
00

16-प्यार करती हुई लड़कियां

प्यार करती हुई लड़कियां
प्यार करती
नज़र नहीं आती
वह प्यार करती भी है या नहीं
पता नहीं चलता
उसका प्यार करना या न करना
एक सा लगता है
कभी लगता है कि वह
बिल्कुल ही प्यार नहीं करती
कभी यह लगता है कि
वह साक्षात प्यार की मूरत है
उसके प्यार करने,या
न करने के बीच
झूलना पड़ता है

हम यह समझते हैं कि
वह प्यार करती भी है
और नहीं भी करती है
प्यार की परिभाषा
हमें नहीं
उसे मालूम है ।
00

आदमी के हक में..संकलन से

प्यार करने के लिए

कब्र से अच्छी
कोई जगह नहीं होती
जहां मिल जाता है
प्यार करने के लिए
पूरा एकान्त।
कोई देख लेगा
के बहाने
वंचित कर दिया जाता
मैं जानता हूं
यहां भी
कोई नहीं आएगा
प्यार करने के लिए
इसे प्यार का
सुखान्त कहूं
00

क्रूरता की संस्कृति

जिस क्रूरता का पता
नहीं चल सका है हमें अभी तक
हमारे बीच आए उसे
काफी लम्बा समय हो गया है।
हम अपने आपको
समझते हैं कुछ ज्यादा ही सभ्य और सुसंस्कृत
यह एक अनूठी मिसाल है
शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व की।
भव्य प्रदर्शन कर
कुण्ठित भावों को उत्सर्जित किया जाना
कूरता की संस्कृति का अपनापन है।
वह समय अब कहाँ रहा
जाने किस चक्रव्यूह में भटक रहा होगा
लगता है अब हम
कुछ ज्यादा ही समझदार हो गए होंगे
प्रतीक्षा कर रहे होंगे
आप हम और सारे विज्ञजन
ऊँट करवट कब बदलेगा और हम शान्तिपूर्ण सो रहे होंगे।
किसी की परवाह किये बग़ैर
शान्तिवन के सरोवर में डूबाए हुए पैर
चैन की बंसी बजा रहे होंगे।
रात हमारे पड़ौसी का बच्चा
रोता रहा सारी रात
माँ के वक्ष का सूख गया होगा दूध
हम आलिंगनबद्ध पड़े रहे
बहकी बहकी सुगन्ध ओढ़े हुए।
पूर्वाग्रहों से सजाए हुए बुके
कड़वी मुस्कराहटों के साथ
कर रहे होगे हम अभिनन्दन
भरी सभा में तालियों की गड़गड़ाहट के बीच ।
इस छत के नीचे
हम सभी हिंसक हो गए हैं
अहिंसा का पाठ पढ़ाते-पढ़ाते ।
जिस संस्कृति की ओर बढ़ रहे हैं हम
कू्ररतम से क्रूरतम कू्ररता लिए हुए
पता नहीं चल रहा है हम
कहाँ जा रहे है।
0
15अगस्त,2007बुधवार

गीत

12-ऐसा लगता है

जब किसी मन्दिर में
छप्पन भोग चढ़ाए जाते हैं
बीसियों को भरपेट भोजन की
संभावनाएं खत्म हो जाती है।
ऐस लगता है
जब कभी वस्त्राभूषण
चढ़ाए जाते मन्दिरों में
बहुत सारे वस्त्रहीन जिस्म
नंगे रह जाते हैं।
ऐसा लगता है
जब तक तुम्हारे लिए
मन्दिर मस्जिद
गुरूव्दारे गिरजे
बनाए जाते रहेंगे
सिर छिपाने दरिद्र नारायण
वंचित होते रहेंगे ।
भूखे को भोजन
न्नगे को वस्त्र
सिर छिपाने छत
मिलने की संभावनाएं
तिरोहित हो रही है
हे प्रभु ! मुझे बता
तुम्हें कितने भोग
और कितने वस्त्राभूषण
और कितनी बार
चढ़ाने पड़ेंगे ।
कब तक छिनता रहेगा
वंचितों के सिरों से छतें ।
11.07.2008 शुक्रवार 2.45 पीएम
00

आदमी के हक में....संकलन से

जगह

अलावा इसके हो क्या सकता है कि
अब तक न बनवा सका
हृदय में उनके ज़रा सी जगह।
उम्र के उस पड़ाव पर होना चाहिए था
जिस पड़ाव पर वे खड़े है
जिस बात पर वे अड़े हैं
चुनने की अकांक्षा लिए हुए कोई फूल
बासा और उजड़ा हुआ बागान
क्या करेंगे सजाकर वे।
कब का हो जाना चाहिए था निर्णय
या कैद हो जाना चाहिए थी उम्र भर की
या खुल्ला छोड़ दिया जाना चाहिए था
बेलगाम भटकने के लिए।
कम से कम बन ही जानी चाहिए थी अब तक जगह
जिससे पुरसुकून हो सकें
कि कैद कर लिया गया है उम्र भर
कि खुल्ला छोड़ दिया गया हूं सांड की तरह ।
फिर करना चाहता हूं निवेदन
अब तो खुला छोड़ दो दरवाज़ा
आ जा सकूं निस दिन चाहे जब
बनवा सकू एक छोटी सी जगह
हृदय के उनके किसी कोने में।
00 01.07.2007...1ः30 बजे
-जन्म दिन का गणित

माँ ने बताया
जिस दिन तू पैदा हुआ
उस दिन पूनम की सुबह थी
सारा दिन रिमझिम रिमझिम पानी बरस रहा था
गाय,भैंस और बकरियाँ
चरने चली गई थी जंगल
स्कूल की छुट्टियाँ खत्म हो गई थी
पड़ौसी की लड़की
स्कूल जाने लग गई थी
और हाँ ,जिस साल तू पैदा हुआ था
उसी साल पं.जवाहरलाल नेहरू आये थे
उद्घाटन करने कारखाने का
लग गई थी तेरी नाक
हाथों में उनके, और
मुस्करा दिये थे पंडित नेहरू ।
पूरे पचपनवे बरस के दिन
जब ताजमहल को
सातवे अजूबे में
शामिल करने की मूहिम चल रही थी
और निर्णय होना श्शेष रह गया था
सप्ताह का सातवां दिन था
महिने की सातवीं तारीख थी
साल का सातवां महिना था
सदी का सातवां वर्ष था
यानी सभी सात सात सात।
तब मैं अकेला एकान्त में बैठा
लिख रहा हूँ जन्म दिन के गणित की कविता
न केक न केण्डिल न मिठाई
न ही कोई संगी-साथी
और न ही कोई हेप्पी बर्थ डे टू यू ।

07.07.2007शनिवार रात 10.00बजे
ऐसा कौन सा काम

उनके जीने या मरने से
कोई फर्क पड़नेवाला नहीं है
जीये तो जीये अपनी बला से
मरे तो मरे
करना क्या है हमें
किसी के जीने से
कुछ होता हो तो बहुत अच्छी बात है।
मोहल्ले के राधेश्याम की दारू
छुड़वाकर जो किया है काम उसने
काबिल ए तारीफ है
कहां कहां नहीं ले गये
उसके घरवाले उसे
पीर-पैंगम्बर,मठ-मन्दिर
तांत्रिक जानूटोना से लेकर
पूजापाठ व्रत-उपवास करने तक
सारे कर्मकाण्ड कर लिए।
जीना उसका जीना होगा
वर्ना उसके जीने का कोई मतलब नहीं
एक पौधा ही लगाया होता आंगन में
प्याऊ ही खोल दिया होता राहगिरों के लिए
पैंतालीस डीग्री धूप में सूखता हुआ कण्ठ
कम अज कम शीतल हो जाता।
बड़ी भारी क्षति हो जाती
यदि उसके सीने में रहनेवाला पंछी
आकाश की ऊँचाईयों के पार चला जाता
बड़े सम्मान के साथ
स्मशान भू तक चलते साथ-साथ
शहर भर के लोग
देते भीगी पलकों से श्रृद्धांजलि
चढ़ाई जाती मालाएं
उनकी तस्वीर पर
आनेवाले वर्षों में
मनाई जाती एक दिन जयन्ती
कहते भले आदम थे वे।
जीने मरने से
फर्क नहीं पड़ता
परिवार समाज या देश को
होती नहीं कोई क्षति
भूला दिया जाता
बाद दस दिन के
कहनेवाले कह देते
ऐसा कौन सा काम किया है।
29/.6/2007

आदमी के हक में....संकलन से

भेडि़ए कभी छिपते नहीं

दोस्त बनकर
दुश्मन जब
आपस में मिलना शुरू कर दे
करें मित्रों की तरह व्यवहार
लगे रिश्तों में अपनापन ।
दोस्त बनकर
जब दुश्मन
जागरूक हो जाए
पेश आए सावधानी से
मांगने लगे दुहाईयाँ
लगे मिमियाने भेड़ों की तरह।
दोस्त बनकर
जब दुश्मन
उतारने लगे बलैया
तारीफों के लगे बाँंधने पुल
करने लगे मित्रों की बुराइयाँ।
दोस्त बनकर
दुश्मन जब
वर्जनाएं लगे तोड़ने
पहनने लगे जामा सभ्यता का
धतियाने लगे परम्परा
लगे बिचकाने मुँह
दिखाकर अपनापन ।
दोस्त बनकर
जब दुश्मन
चढ़ाने लगे मनौतियाँ
पहनाने लगे माला फूलों की
लगाने लगे मरहम घावों पर
बगल में छिपाए हुए कटारी से
छिलने लगे तलवें
लगे खोजने अर्थ मलतब के ।
दोस्त बनकर
दुश्मन जब
मिलने लगे आपस में लगे
साम्प्रदायिकों सी चलें चालें
सभ्यता का दुशाला ओढ़े हुए ।
आज हमारे बीच से ही
कुछ दुश्मन कर रहें होंगे
एक दूसरे के खिलाफ
एक दूसरे के लिए
धिनौना संघर्ष....
दोस्त बनकर
अपनत्व दिखाएं
शेर की खाल में भेडि़ए
कभी छिपते नहीं ।
08.07.2008 मंगलवार
00

ताजमहल

ताजमहल का ताजमहल होना
सचमुच का ताजमहल होना है
जैसे आगरे का ताजमहल।

ताजमहल यदि सच्चा ताजमहल है
वह पे्रम का मन्दिर होगा
जैसे मैं और उनका पे्रम।

ताजमहल कहते सुनते ही
रोमांचित हो उठता है जिसका तनम न
समझो हो गया है उसे कुछ कुछ
एक और ताजमहल बनाने का रोग।

लोग घरों में ताजमहल नहीं
पे्रम भवन सजा रखते हैं
यादें बनी रहे ताजा उम्रभर
दिलाते हुए याद एक दूजे को।

मैं तेरा शाहजहां ,मुमताजमहल तू मेरी
गाते रहेंगे सुर ताल मिलाकर
यमुना संभाले रखेगी जब तक
पूरनमासी में जगर मगर करता ताजमहल ।

जन्नत है तो कहीं और नहीं
हुस्न है तो कहीं और नहीं
इश्क है तो कहीं और नहीं
जिस्त है तो कहीं और नहीं
ख्वाब है तो कहीं और नहीं
यादें है तो कहीं और नहीं
तसव्वुर है तो कहीं और नहीं
सिर्फ आगरे जाकर देखो यमुना किनारे

जन्नत , हुस्न, इश्क , जिस्त ,ख्वाब
यादे-तसव्वुर एक साथ दिखाई देंगे
जगर मगर करते हुए दुधिया रातो ंमें

ताजमहल का ताजमहल होना ही
सचमुच का पे्रममहल होना है
जैसे आगरे का ताजमहल
जैसे मैं और उनका पे्रम ।
0000......28/06/2007

आदमी के हक..संकलन से

कुत्ता और हड्डी

कुत्ता हड्डी बड़ी देर तक चबाता है
अक्सर उसे पूरे पांच साल लग जाते हैं
चबाते हुए हड्डी
हडड्ी चबाना उसका शगल है
कभी कभी वह
झपटट् मारता है
दूसरे के मुंह से छीनने के लिए
कभी वह कामयाब होता है
कभी वह नाकामयाब होता है
एक बार मुंह में हड्डी आने पर
वह इतनी मजबूती से दबाए रखता है
कि कोई दूसरा कुत्ता झपट न लें उसके मुंह से
गुर्राता भी है कुत्ता
डराने के वास्त
ताकि कोई दूसरा कुत्ता
छीन न लें हड्डी उसके मुंह से
चबाते चबाते हड्डी भले ही टूट जाए
लेकिन छूटने न पाये मुंह से
कोशिश लगातार चलती रहती है और चलते रहेगी
कुत्ता कोई भी हो
पूरे पांच साल तक
हडडी चबाना उसका शगल हो जाता है।
00

आदमी ब्लाउस जैसा कमीज पहन सकता है ।

यह सवाल जहन में उठना लाजमी है
शर्मो-हया की हद होती है या नहीं
मुझे नहीं है ज्ञात
किसी एक वर्ग की नही है यह बपौती
वैसे शर्माे-हया आरक्षित है
जैसे आरक्षित है
सभ्यता,संस्कृति और
कायदें सभी के लिए ।
कायदों में ज्यादा छूट दी गई है
जैसे खुली पीठ और
नाभी दर्शन कराते हुए उजले पेट
साँचीनुमा उभरे उरोज
दिखाई देते मुख्य व्दार
गोरी-गोरी मखमली लम्बी चिकनी बांहे
झांकते हुए बगलों की कमनीयता
लचकते कमर का भूगोल
मौसम की दरकार नहीं
ठिठुरते पौष में भी
भला लगता है प्रदर्शन ।
अक्सर सोचा करता हूं
नख-शिख तक क्यों
ढका होता है पुरूष
पेंट फूल,शर्ट-फूल,कोट-फूल
फूल मौजे तसनों से कसे जूते
हाथों के पंजे
गर्दन से सिर तक अंग
जायज है सिर्फ दिखाने के वास्ते
अपनी गरीमा बनाए रखने के लिए ।
मेरी गुजारिश सिर्फ इतनी है
मर्द ब्लाउस जैसा कमीज
पहन तो सकता है न ?
चैड़ा वक्ष-पीठ,कमर उन्नत कांधे
और नाभियुक्त उदर
पौरूषता लिए विशाल वक्षस्थल पर
लहराते घनकेशपाश
दर्शन करवा तो सकता हैं
रख सकते हैं सुड़ौल बलिष्ठ खुली भुजाएं
पहन सकते हैं ब्लाउस जैसा कमीज ।
सबसे अहं बात है
मर्द अपने जिस्म पर
कम से कम वस्त्र पहन
कैटवाक कर सकता है रैंप पर...
सुन्दरता का परचम
फहराया जा सकता है
इतनी तो मोहलत
मिली ही चाहिए मर्द को ।
00

4-मैंने ईज़ाद की कविता

डमरू के डम डम से
बिखर गए शब्द
ब्रह्माण्ड के अण्ड से फूट पड़े स्वर
वीणा के नाद से गूंज उठा नाद
शंकर के नृत्य से तरल हुए भाव
भारती के नयनों से निकल पड़ा विभाव
शिव की जटा से बह निकली सरिता
एकत्र कर सारे उपकरण
मैने इजाद की कविता ।
ऊषा के भाल पर
छिड़क गया सिन्दूर
सूरज की किरणों से
बिखर गया नूर
फूलों से टपक पड़ा
कोमलता का भाव
यौवन की चल पड़ी
चंचल सी नाव
मदमाती इतराती
विहंस पड़ी गर्विता
अम्बर के पास से
मैंने ईजाद की कविता ।
बरस पड़ा रस
नवरंग नवरस में
जीवन गया बस
निर्धन की झोपड़ी में
रिक्त पड़े कक्ष
सीमा पर फौजी है
कर्मठा में दक्ष
ममता के आंचल से
बहा नेह राग
पी के अधरों पर
पे्रममय पराग
कली-कली,पुष्प-पुष्प
भौरा है गाता
सृष्टि के प्रांगण में
मस्त हो जाता
रच डाली शब्दों की
सुन्दर सी सरिता
अभिव्यंजना के रंगों से
मैंने ईजाद की कविता ।
000

कृष्ण जन्म

थी मध्य निशा की पुनित बेला,औ’आच्छादित मेघ श्रृंखला व्यापाररजनिकर मुख छिपा क्षितिज मेंघुप् तम पथ था पारावार ।-1तिमिर में भी ज्योति पूँज आलोडि़त होताघनन् घनन् घन घनन् घनन् घन मेखलापार व्योम से झांकता वह चितवन चकोराजाने किसका होगा वह चंचल चपल छोरा ।-2मलयानिल बयार मधुर घ्राँण रंध सुवासितकौन है वह जो करता हृदय को विस्मितकौन है वह जो होता पुलकित बार बार कौन है वह जो प्रमुदित होना है चाहताकौन है वह जो होना चाहता  सृजनहार ।-3ऐसे में निपट कौन मौन अस्तित्व लिएविहंसता सह कुसुमित सा सुकुमारतड़-तड़ तोड़ लौह बन्ध मुक्त वहप्रगट हुआ एक शिशु बीच कारागार ।-4कोमल लघु पावन चरण धरा धरविभु नयन सम्मुख हो महा-मनोहरविहंस  पड़ी अधराधर मधु मुस्कानयही होगा इस युग का महान गान ।-5कोई कल्पनातीत निशा मध्य कर उजियालाकर अलौकिक तन-रजनि में था उगनेवालाउस पराशक्ति का अनुभूतिजन्य था विकासकर रहा था तम का वह पल क्षण उपहास ।-6जिस काल खण्ड में लोक लीलामय जनमताभव धनु वितान उस भू पर विभु का तनताविधि विधान विविधमय वह कर जातावह धरा पर उसी क्षण अवतरित हो जाता ।-7जिस क्षण सांसारिक माया स्वपन टूटतामहाकण्ठ से बरबस युगल गान गूँज उठतादिग-दिगन्त तक प्रतिध्वनित हो उठती तानसकल जगत उल्लासित गा उठता वह गान ।-8जिस क्षितिज से वह मन्द मन्द मुसकायाविधि ने रच दी अपनी अद्भूत मायासाधुजनों का करने को वह परित्राणसंकल्परत धर्मध्वजा का होगा अभ्युथान ।-9अवतरण तब उसका जब नाद ब्रह्म गुँजायाहो गई विमोहित वीणा-वादिनी की मायाझंकार उठी दिशा-दसों औ’अखिल ब्रह्माण्डविविध कण्ठ ने आवाहन उसका गाया ।-10अखिल विश्व प्रमुदित उल्लासित हो झूमाकिंकर-गन्धर्व-अप्सराएं मृदंग झाँझ नृत्य होमासमूह गान स्तुति लय ताल छन्द युगल हो गाएव्योम अवनि अम्बर तल अनन्त धरा भी घुमा ।-11खग-मृग-व्याघ्र जीव-जन्तु मानव हृदय हर्षायेलता कुँज वन नद नाल सरोवर अलसायेनहीं रूकता निरन्तर अल्हादित होता उल्लासउसके अधरों पर जगमग जगमग होता उजास ।-12पराजित होना उसने कभी सीखा नहींहारने पर भी सदा गुदगुदाता था रहताकभी चरण रज प्रक्षालन में पीछे हटा नहींहोकर अपमानित फिर भी वह था मुस्काता ।-13निकुँज कुँजवन में लुकता छुपता उसका छलवानाचपल चंचल चतुर चितचोर का चितरानाभला कौन नहीं चाहेगा ऐसे में भुजबन्ध मिलानावृषभानुसुता को मधुर मुरली का सुनाना ।-14मानवता की खारित उसने गान गीता का गायाजीवन सारा कर उत्सर्जित फिर भी वह मुस्कायामेरे कृष्ण तुम तो मेरे प्राणों के हो आधारआओ तो कर लूँ मैं तुमको जी भर के प्यार ।-15000