रविवार, 4 अप्रैल 2010

कविता

आहूति
मैं कर्म यज्ञ में निज की आहूति देता हूं.......
मैं ही यजमान मैं ही यज्ञ का होता हूं........

पसन्द नहीं है उसको फूल पत्ती और गुलकन्द
वह भूखा तड़पता होता और वे खा रहे होते कलाकन्द
आंसू पोंछ कर गले स्नेह से लगाना पर्याप्त है
हवन कर निज का दुःख दारिद्र मिटाना पर्याप्त है

समर्पित निज को कर स्वयं हवन बन लेता हूं
मैं कर्म यज्ञ में निज की आहूति देता हूं.......

बड़े बड़े महलों राजप्रसाद किसके लिए
धन वैभव संपत्ति जायजाद किसके लिए
छोड़कर हाथ खुले चल देना होगा एक दिन
रह जाना होगा धरा का धरा यहां बिखरा हुआ

इसलिए मैं अपना सारा उपवन दे देता हूं
मैं कर्म यज्ञ में निज की आहूति देता हूं.......

जो जीवित है श्रद्धा नहीं उसके प्रति
बाद मृत्यु श्राद्ध की क्या आवश्यकता
भोग छप्पन चढ़ाये जाते बाद मरने के
जीताजी रूला रूला कर लड़पाने की क्या आवश्यकता

श्राद्ध नहीं मैं श्रद्धा को वरमाला पहना देता हूं
मैं कर्म यज्ञ में निज की आहूति देता हूं......

-.कृष्णशंकर सोनाने
जिस दिन से दुनिया
जिस दिन से दुनिया
इतनी बदल गई
इतनी कि अब
सब कुछ रंगहीन हो गया ।
दुनिया अब
इतनी बदल गयी है कि
सारे मानवीय सरोकार
हासिए पर डाल दिए गए है।
रिश्तों की कमजोर
हो गई है बुनियाद
विश्वासों की मिनार
ढग गई है
इसीलिए तो गंगा
अब मैली हो गई है।
कानून अंधा और
बौद्धिक विकलांगता से
ग्रसित हो गए
न्यायाधीश
दिशाहीन पदचिन्हों का अनुसरणा
किया जा रहा अंधाधुंध ।
व्यवस्थाएं लचर
असामाजिकता के
पूर्वाग्रह से ग्रसित
चिघाड़ चिंघाड़ कर
साबित कर रही है
अपने आपको आदर्श का दूत।
उठाईगीर लम्पट और
नम्बरदारों में
बदल गई है व्यवस्थापिका
चौर कर्म से अभिभूत
तंत्राधिशों की सत्ता
सावन भादों की
फलफूल रही है।
दुनिया अब इतनी
बदल गई है कि
संताप होता है
यह सोच सोचकर
अब क्या बच रह गया है दुनिया में ।
बदलते ही दुनिया
बदन गया मौसम
ऋतु्ओं का सहसा परिवर्तन
असहनीय हो गया है
उठ खड़ा हुआ है मौसम
इन्सानियत के खिलाफ ।
घोटालें जीवन का
बन चुके है पर्याय
बन चुका है अब
भ्रष्टाचार,शिष्टाचार ।
दुनिया के बदल जाते ही
भरभराकर गिर गई दीवार
आचरण नम्रता और सभ्यता की।
कहा करते थे जिस देश को
सोने की चिड़िया
दिखाई नहीं देती कहीं
चहचहाते हुए अब ।
दो लब्ज सुनने को आतुर
तड़प रही है संवेदना
प्रेम के
जाने कहां की गई है कैद
परिभाषा प्रेम की
इसी एक उम्मीद के साथ
अब तक जीवित है
मनुष्यता की जिजीविषा।
जब दुनिया
बदल ही गई है तो
उछल उछल कर
पीटा जाना चाहिए ढिंढोरा
बेहयायी नाइन्साफी नाउम्मीदी और
नामुरादी का ।
बदल गई है दुनिया,तब
बदल जाने दीजिए
हम तो जैसे थे पहले
आज भी वैसे ही है
अपना एक साल
आगे किए हुए ।
-.कृष्णशंकर सोनाने

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