रविवार, 4 अप्रैल 2010

कविता

कविता
वृद्ध अनाथ हो रहे हैं
आसमान की ओर टकटकी लगाए देख रहे हैं वृद्ध
वृद्ध कुलबुला रहे है
कुलबुला रहे हैं वृद्ध
सबसे भयानक विडम्बना है यह हमारे समय की
हल करने के लिए किया जाना चाहिए
इसे प्रश्न पत्र में शामिल
अनिवार्य प्रश्नों के समूह मे
वृद्धाश्रम क्यों भेजे जा रहे हैं
क्या संतानहीन है सारे वृद्ध
कम हो गई होगी जगह संतानों के दिलों में
घरों में चाहे कितनी ही जगहें हो
आसमान में तारा टूटा होगा और
वह कहीं ऐसी जगह गिरा होगा
अस्तित्व जहां उसका कुछ होगा ही नहीं
टकटकी लगाए देखना
इस उम्मीद के साथ कि
किन्ही हाथों का सहारा मिल जाए।
तिल का ताड़ बनाना इतना आसान नहीं है
जितना आसान दुरदुराना होता है
क्या संवेदनाएं रफूचक्कर हो गई है
क्या कर्त्तव्यविमूख हो गया है हमारा समय
या सारी पृथ्वी को कर दिया गया है खारिज।
कुलबुलाना नियति बन गई है।
वृद्ध कुलबुला रहे हैं.....क्यों
कब तक कुलबुलाते रहेंगे
कुलबुला रहे हैं आसामान की ओर ताकते हुए
वृद्ध कुलबुला रहे है।
--.कृष्णशंकर सोनाने
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खत्म हो गए हैं
खत्म हो गए है
आदर्श और मानवता के सारे सिद्धान्त
समानता की बातें करना
बीती सदी की बासी खरोंचन हो गई है
अहिंसा के कंटीलें पथ पर चलकर
आज तक किसी का कल्याण हो नहीं सका
बलि के बकरे का
बलिदान हो जाने पर भी
खानेवाले को स्वाद नहीं आता
सत्य अहिंसा के पथ पर चलकर
सीने पर गोली खाने के बाद
झोंकी जा रही है जनता
भढ़भूंजे की भट्टी में
इसीलिए
यह जरूरी नहीं है कि
वे और उनकी संतानें
राज़ करें देश पर।
सीने पर गोली खाने
हम ही क्यों आगे आए
जो सबसे अधिक बेईमान है
और सबसे अधिक क्रर है
जो षढ़यंत्र की साजिश
रचने में माहिर है
वे ही मार्गदर्शन कर रहे हैं
ले चल रहे हैं प्रकाश से अंधकार की ओर।
--.कृष्णशंकर सोनाने
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भरी दोपहरी
नहा रही वह गंगा जी के तट पर
देह गदराई
दमक रही है यौवनता के पथ पर ।।
दिख रही है
देह कंचन उघड़ी उघड़ी यहां वहां से
देख रही है
निगाहें सैंकड़ों छुपके छिपके जाने कहां से।
कैसी निर्लज्जता
बिखरी पड़ी है होटलों रेस्तरां रजत पट पर
देह गदराई
दमक रही है यौवनता के पथ पर ।।
उघड़ रही है
काया कंचन मेले और चौबारों में
शीत वर्षा
तपते चैत वह इतनाये बाज़ारों में ।
इठलाती मदमाती
वह कमर लचकाती चल पड़ी अब रैंप पर
देह गदरायी
दमक रही है यौवना के पथ पर ।।
अंग अंग मादकता
तिस पर रसभरे अधरों के प्याले
मात पिता भ्राता
भगिनी के मुख पर लगे आधुनिकता के ताले।
निकल पड़ी वह
सदी इक्कीसवीं के सुनहरे स्वप्निल पथ पर
जाने किधर वह
चली जा रही सभ्यता संस्कृति तज कर
देह गदरायी
दमक रही है यौवनता के पथ पर ।
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मैं कविता रचता हूं
रचता क्या हूं
प्रियतमाओं के मुखड़े निहारता हूं
और पत्थरों से सिर टकराता हूं ।
मैं कविता रचता हूं
फूलों का रस और रसों की सुगन्ध
इस तरह चुरा लेता हूं
जिस तरह किसी के आंख का काजल
कोई चुरा लेता है।
मैं रचता हूं कविता
और चुपचाप
गिन लेता हूं पंख
उड़ती चिड़िया के
कितने पर है उसकी उड़ान ।
मैं कविता रचता हूं
किशोरीलाल की झोपड़ी में बैठे
और रांधता हूं
बच्चों को खुश करने के लिए गारगोटियों की सब्जी ।
मैं रचता हूं कविता
तसलीमा नसरीन की
आंखों के आंसू
अपनी आंखों में महसूसते हुए
कि क्यों एक नारी को समूचा एशिया महाव्दिप
निष्कासित करने के लिए उतारू है।
मैं इसलिए कविता रचता हूं कि
बगावत की मेरी आवाज़
जड़हृदयों के भीतर तक चोट कर जाए
और कहीं से तो
एक चिंगारी उठे।
मैं कविता रचता हूं
क्योंकि आप भी समझ लें कि
कविता रचने के बिना
मैं रह नहीं सकता ।
00-
विनय दुबे जब खुश होते हैं
नटराज बन जाते हैं
और खेलने लगते हैं डांडिया
विजय बहादुर सिंह के साथ ।
विनय दुबे जब खुश होते हैं
बड़ा तालाब भोपाल का
लबालब भर जाता है
और खबर बन जाती है
एशिया का वह तीसरे नम्बर का
नैसर्गिक तालाब है
जो भर गया है विनय दुबे के हंसने से ।
विनय दुबे जब खुश होते हैं
भारत भवन कभी स्वराज भवन में
सुनाने लगते हैं कविता
भगवत रावत को
सम्बोधित करते हुए
यकीन न हो तो आप लोग
हरि भटनागर
सम्पादक साक्षात्कार
संस्कृति भवन बाणगंगा
भोपाल से
पूछ सकते हैं।
-.दो शब्दों के बीच, से
रचनाकाल 21 जून 2004

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