रविवार, 4 अप्रैल 2010

कविता

राम का जैसे वनवास
सारा जीवन मेरा राम का जैसे वनवास हो गया ।
कुटिल खल कामियों के लिए जैसे परिहास हो गया..

मेरा यह प्रयत्न रहा सबको प्रसन्न करूं मैं
हो छोटे चाहे बड़े सबको नमन करूं मैं
खाली हाथ न जाने पाये कोई मेरे व्दारे से
हो भूखा चाहे प्यासा सबको तर्पण करूं मैं

सबकी आवभगत करने का मुझको जैसे अभ्यास हो गया
मैं नत मस्तक होकर इनका उनका सबका दास हो गया..ण-----

मैंने जिस जिसको भी चाहा हितैषी अपना माना
जिस जिसने जैसा चाहा गाया वैसे ही गाना
दिन को कहा रात, रात को दिन कह डाला
हां मे हां, ना में ना, बता किया उजाला

मानवता की खातिर मैं आज जैसे खल्लास हो गया
मेरा सारा जीवन तप तप कर जैसे सन्यास हो गया.....

जितना गरल पीता रहा उतना होते रहा परिष्कृत
जिस जिसके भी निकट जाना चाहा होते रहा तिरस्कृत
मेरे भलमनसाहत का हृदय रहा सदा ही टूटता
मेरे अपनों ने किया है इस तरह मुझको बहिष्कृत

साथ साथ उठते बैठते अपनत्व का जैसे उपहास हो गया
सारा जीवन मेरा अब तो जैसे खाली गिलास हो गया...

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