रविवार, 4 अप्रैल 2010

कविता

कचरा बीनने वाली लड़की : भागू

वह टी टी नगर के कूढ़ों पर
मैले कुचैले कपड़ों में
कचरा बीनते फिरती है
गँदली-मैली सी सुन्दर लड़की
मन ही मन गुनगुनाया करती है
कोई रंगीला पे्रम गीत
लरजते हैं उसके अधर
किसी लजीली बात पर
साफ करते हुए कचरा
थिरकने लगते है उसके पैर
मन ही मन मुस्कराती है
उज्ज्वल भविष्य का सपना लिए
मिल ही जाती है
कोई न कोई वस्तु पुराने कपड़ों मे
लिपिस्टिक, नैलपॉलिश या आईब्रो
उड़ने लगते है उसके रेतीले ख्वाब कबूतरों की तरह
प्रयास करती है वह
दूर आकाश में उड़ने का
निहारा करती है वह घरों में
झाँक झाँक कर कौतुहल से
टी व्ही सोफा कूलर रंग बी रंग सजावटे
झट से तोड़ लेती है वह
किसी आँगन में खिला गुलाब
जुड़े में खोंसने का करती है नायाब प्रयास ।
आधी अध्ूरी लिपिस्टिक से
रंग लेती है वह
काले काले मटमैले रतनारे होंठ
टूटे हुए शीशे में लगती है निहारने
अपना रंग रुप
और धीरे से लगा लेती है ठुमका ।
मचलती है वह किसी बात पर
देखती है इधर -उघर
निहार ले उसे कोई
वह भी तो सुन्दर लग रही है
छेड़ जाता है जब कोई उसे
बिखर जाता कचरा उसका
उखड़ जाती होंठों की लाली
उसकी गर्द से भर जाता है सारा शहर
टूट जाता उसका सपना
नहीं बन सकती वह
ऐश्वर्या राय सी सुन्दर
गुनगुनाती है मन ही मन
कोई रंगीला पे्रम गीत
किसी लजीली बात पर ।
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माँ

खाना पकाते हुए
मैं अपनी माँ के बारे में
सोचा करता हूँ ।
तुमने कभी
खाना पकाते हुए
माँ के बारे में सोचा है !
अच्छी बात है
माताओं के बारे में सोचना
अपनी अच्छाई उजागर होती है ।
हम कुछ ऐसा हो सकते हैं
पर सोचने में कठिनाई यह है कि
हम ऐसा हो नहीं सकते
होते तो माँ के अतिनिकट होते
और माँ जैसे होते ।
कितने करीब आना होता है माँ के
माँ जैसा होने के लिए
माँ दोनों समय खाना पकाती है
क्या हम भी
माँ के लिए खाना पका सकते हैं
जब उसे हमारी आवश्यकता हो ।
क्या हम भी
माँ के बारे में सोचते हैं
निकट या दूर से ।
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काकी

काकी बरसों से भूखी थी
और पे्रमचन्द
भोजन परोसना भूल गए थे
भूख तो भूख होती है
चाहे अच्छा खाना मिल जाए या साधारण
भूखे को भोजना मिलना चाहिए ।
जैसे ही सुगन्ध महकती है
काकी की भूख बढ़ जाती है ।
दो इंच की ज़बान मचलती है
पानी आ जाता मुख में
चोरी से खाने का मन होता हे
कभी कभी चोरी से
खाने की घटना घटित हो जाती है
वैसे चोरी से खाने का
मज़ा ही कुछ और होता है
ताकना झाँकना विवशता हो जाती है काकी की
प्रतीक्षा करनी होती है
कोई आकर परोस दे खाना ।
सारे मेहमान उस दिन खाना खाकर चले गए
काकी अपने कमरे में करती रही प्रतीक्षा
बहू बेटे ने सुध ही नहीं ली काकी की
मजबूरन झूठे पत्तलों को टटोल टटोलकर
झूठन खाती रही।
आज भी काकी भूखी है कई घरों में
समय पर खाना मिल जाए तो कभी झूठे पत्तल
टटोलना नहीं पड़ेंगे किसी काकी को।
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गेट आउट

जब चाहे तब
गेट आउट किया जाता है मुझको
जैसे गुस्से में निकाला जाता है
नौकर को कमरे से ।
बड़ी मिन्नत मनौती के बाद
वे कहते है
चलो ठीक है लेकिन
अपनी औकात में रहा करों
आइन्दा ऐसी गलती नहीं होनी चाहिए ।
अँंगूठे से कुरेदते हुए ज़मीन
दाँतों में दबाएं हुए आँचल
हामी भरनी होती है
तब कहीं जाकर वे भीतर बुला लेते है
शरणार्थियो की तरह सशर्त ।
मेरा कहीं भी वजूद नहीं रहता
ज़रा सी चूँ चपट होने की देर है
बिना किसी मुरव्वत के
गेट आउट की जा सकती हूँ
मेरे ही दम पर चलती है उनकी गृहस्थी
सुबह का नाश्ता
दोपहर का लंच
और रात का खाना
टाइम पर दूध और दवाइयाँ देना
संभव नहीं है मेरे बग़ैर ।
ये जो घर है
महज़ खिड़की दरवाज़े फर्नीचर
बर्तन भाण्डो से नहीं बनता
इसे बनाया जाता है एक अदद औरत से
अपनी सम्पूर्ण आत्मा
ऊँढ़ेल कर
गेट आउट उनका आखिरी दाँव है
तीस दिनों के महिने भर में
उन्तीस दिन गेंट आउट होना पड़ता है
बहुत ही बेइज्जती के साथ
फिर भी उनका मन नहीं मानता ।
झेलना पड़ता है बार बार गेट आउट की जिल्लत
बावजूद इतना सब होने के
गेट इन होती हू
उनको भी
आने वाले समय में
गेट आउट करने का संकल्प लिए ।

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