रविवार, 4 अप्रैल 2010

भोपाल गैस त्रासदी

भोपाल गैस त्रासदी
काली रात
ये कैसा धुआं है
जो निगल रहा है शहर
ये कैसा धुआं है
जिसकी पूंछ शहर के
इस सिरे से उस सिरे तक लम्बी है
ये कैसा धुआं है
जिसका मुंह सिरसा की तरह
इस सिरे से उस सिरे तक खुला है ।
ये कैसा धुआं है
निगल रहा है जो शहर
सिर और पूंछ से लगातार
शहर के बाशिन्दे
समाये जा रहे हैं जहरीले धुंएं के मुंह में
ये शहर धुएं में है या
ये धुआं शहर में है
शहर में धुआं है और धुएं में शहर है
लेकिन यह वाकया कि
धुंऐ ने सारे शहर को निगल डाला है
और शहर निष्प्राण हो गया है
इस जहरीले धुएं के मुख में ।
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शव यात्रा
इन हाथों ने उठाए है
डेढ़ हज़ार सs ज्यादा शव
और एक ही चिता पर
डेढ हजार शवों को रखा ।
शवों के उदरों से
पास होती मिक गैस
और पास ही मृत पड़ी
सडांध से युक्त दस बारह भैसें
वो रिसती हुई लार शवों की
मेरे वस्त्रों को तर करती रही
आज भी समाई है वह दुर्गंध
शवों की मिक गैस की
पूरा शमशान शवों से भरा हुआ
बच्चे बूढे
औरत लड़कियां
कौन मुस्लिम कौन हिन्दू
कौन सिक्ख कौन ईसाई
इन हाथों ने उठाई है उनकी लाशें
और सभी को एक ही चिता पर
लिटा कर अंतिम संस्कार किया गया
धड़कता रहा मेरा हृदय तेजी से
सप्ताह दो सप्ताह
शवों के चेहरे मंडराते रहे आखों में
वह दुर्दिन अब भी याद है
याद आते ही रो पड़ता है मन
कहता है
अजी हां मारे गए इन्सान..
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नोट -.मैंने गैस त्रासदी के समय अपने हाथों से लगभग डेढ़ हज़ार से ज्यादा शव उठाएं है और उन्हे चिता पर लिटा कर अन्तिम संस्कार किए है । स्मशान का वह दृश्य आज भी मेरे दिमाग में जस का तस है ।
कृष्णशंकर सोनाने

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