मैने ईज़ाद की कविता
डमरू के डम डम से
बिखर गए शब्द
ब्रह्माण्ड के अण्ड से फूट पड़े स्वर
वीणा के नाद से गूंज उठा नाद
शंकर के नृत्य से तरल हुए भाव
भारती के नयनों से निकल पड़ा विभाव
शिव की जटा से बह निकली सरिता
एकत्र कर सार उपकरण
मैने इजाद की कविता ।
उषा के भाल पर
छिड़क गया सिन्दूर
सूरज की किरणों से
बिखर गया नूर
फूलों से टपक पड़ा
कोमलता का भाव
यौवन की चल पड़ी
चंचल सी नाव
मदमाती इतराती
विहंस पड़ी गर्विता
अम्बर के पास से
मैंने ईजाद की कविता ।
बरस पड़ा रस
नवरंग नवरस में
जीवन गया बस
निर्धन की झोपड़ी में
रिक्त पड़े कक्ष
सीमा पर फौजी है
कर्मठा में दक्ष
ममता के आंचल से
बहा नेह राग
पी के अधरों पर
पे्रममय पराग
कली-कली,पुष्प-पुष्प
भौरा है गाता
सृष्टि के प्रांगण में
मस्त हो जाता
रचडाली शब्दों की
सुन्दर सी सरिता
अभिव्यंजना के रंगों से
मैंने ईजाद की कविता ।
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भेड़िये कभी छिपते नहीं
दोस्त बनकर
दुश्मन जब
आपस में मिलना शुरू कर दे
करें मित्रों की तरह व्यवहार
लगे रिश्तों में अपनापन ।
दोस्त बनकर
जब दुश्मन
जागरूक हो जाए
पेश आए सावधानी से
मांगने लगे दुहाईयाँ
लगे मिमियाने भेड़ों की तरह।
दोस्त बनकर
जब दुश्मन
उतारने लगे बलैया
तारीफों के लगे बाँंधने पुल
करने लगे मित्रों की बुराइयाँ।
दोस्त बनकर
दुश्मन जब
वर्जनाएं लगे तोड़ने
पहनने लगे जामा सभ्यता का
धतियाने लगे परम्परा
लगे बिचकाने मुँह
दिखाकर अपनापन ।
दोस्त बनकर
जब दुश्मन
चढ़ाने लगे मनौतियाँ
पहनाने लगे माला फूलों की
लगाने लगे मरहम घावों पर
बगल में छिपाए हुए कटारी से
छिलने लगे तलवें
लगे खोजने अर्थ मलतब के ।
दोस्त बनकर
दुश्मन जब
मिलने लगे आपस में लगे
साम्प्रदायिकों सी चलें चालें
सभ्यतमा का दुशाला ओढ़े हुए ।
आज हमारे बीच से ही
कुछ दुश्मन कर रहें होंगे
एक दूसरे के खिलाफ
एक दूसरे के लिए
धिनौना संघर्ष....
दोस्त बनकर
अपनत्व दिखाएं
शेर की खाल में भेड़िए
कभी छिपते नहीं ।
08.07.2008 मंगलवार
रविवार, 4 अप्रैल 2010
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