शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

लावा पुरस्कृत





आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि मेरा उपन्यास ''लावा '' तीन बार पुरस्कृत हुआ है,जो क्रमशः इस प्रकार हैः.1.नर्मदा प्रसाद खरे सम्मान,2009 कादम्बरी,जबलपुर 2.बालकृष्ण शर्मा नवीन पुरस्कार,2008 रूपये 31000.व्दारा मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी 3.अंबिकाप्रसाद दिव्य पुरस्कार,2011 ..रूपये 5000 व्दारा मप्र राष्टभाषा प्रचार समिति ।
..कृष्णशंकर सोनाने

रविवार, 10 जुलाई 2011

सिवाय किताब के


अब तक कोई मित्र न मिला..सिवाय किताब के
अब तक कोई भाई न मिला..सिवाय किताब के
अब तक कोई प्रेमिका न मिली..सिवाय किताब के
अब तक कोई प्रेमी न मिला..सिवाय किताब के
अब तक कोई पत्नी न मिली..सिवाय किताब के
अब तक कोई रिश्ता न मिला..सिवाय किताब के
अब तक कोई अपना न मिला..सिवाय किताब के
अब तक कौई सोहबत न मिली..सिवाय किताब के
अब तक कोई महफिल न मिली..सिवाय किताब के
अब तक किसी से ज्ञान न मिला..सिवाय किताब के
अब तक कोई शिक्षा न मिली..सिवाय किताब के
अब तक कोई इन्सान मिला..सिवाय किताब के
अब तक कोई गपबाज न मिला..सिवाय किताब के
अब तक कोई साथी न मिला..सिवाय किताब के
अब तक कोई हमसफर न मिला..सिवाय किताब के
अब तक कोई रोशनी न मिली..सिवाय किताब के
अब तक कोई हमराज न मिला..सिवाय किताब के
अब तक कोई ज्ञानी न मिला..सिवाय किताब के
अब तक कोई दानी न मिला..सिवाय किताब के
अब तक कोई हमजोली न मिला..सिवाय किताब के
अब तक कोई मनचाहा न मिला..सिवाय किताब के
अब तक कोई मेरा न मिला..सिवाय किताब के
...कृष्णशंकर सोनाने

सोमवार, 16 मई 2011

स्मृति शेष----कमला प्रसाद



तुम सूर्य थे
...राजेन्द्र शर्मा
तुम सूर्य थे हमेशा
मैं तुम्हारा चन्द्रमा
उधार की रोशनी से चमकता हूं रोज़
सूर्यास्त के बाद
चांदनी रात में नौका विहार जैसे
चुराये गये वाक्यों के सहारे
एक स्कूली निबन्ध लिखता हूं
और अब्बल नम्बर कहाता हूं
तमगों से चिथड़ा हुई कमीज़
शान से पहले घूमता हूं तुम्हारी आकाशगंगा में
मेरे चेहरे पर तो तुम्हारी अक्कासी साफ साफ
इतनी कि दूर से दिखाई दे
किसी ने लाड़ से आंजी है काजल बी लकीर
और लगा दिया हो डिठौना
तुम्हारे पीछे पीछे एक गोलार्द्ध से दूसरे गोलार्द्ध
में जाता हूं
तुम्हे धन्यवाद कहने के लिए
बस एक छोटा सा शब्द
जो कभी कहा नहीं
सामना होने पर पीला पड़ जाता हूं
कभी घटता हूं कभी बढ़ जाता हूं ।

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

भ्रष्टाचार मिटाया नहीं जा सकता

जनलोकपाल बिल लाने के लिए 72 वर्षीय गांधीवादी अन्ना हजारे आमरण अनशन कर रहे हैं । उन्हें कोटी कोटी साधुवाद..इसलिए भी कि इतना साहस अन्ना ने किया है। हम भी अन्ना के साथ है,यदि भ्रष्टाचार वास्तव में मिटाना है,लेकिन मेरे चार दशक के अनुभव ने यह बताया है कि गांधीवादी अन्ना हजारे जैसे दस बीस अन्ना हजारे भी अनशन करके अपना बलिदान दे दें तो भी भारत जैसे देश के जनमानस के व्यवहार से भ्रष्टाचार मिटाया नहीं जा सकता । चाहे कितने भी जनलोकपाल बिल पास हो जाए । हमारे देश का एक अदने से व्यक्ति से लेकर उच्चस्तर पर विराजमान व्यक्ति पर आकंठ भ्रष्टाचार में लिप्त है । शासकीय अथवा अशासकीय संस्थानों में अन्तिम पंक्ति का कर्मचारी हो या प्रथम पंक्ति का अधिकारी हो,सीधे मुंह बात नहीं करता । किसी व्यक्ति का महत्वपूर्ण कार्य नहीं हो पाता,जब तक कि उन्हें उनकी मांग पूरी नहीं की जाती । यह कहना विश्वसनीय नहीं है कि जनलोकपाल बिल पास होने के बाद ऐसा नहीं होगा,क्योंकि हमारे देश के लोगों में भ्रष्ट आचरण उनकी रग रग में उनके रक्त में उनके विचारों में उनके व्यवहार में...यहां तक कि उनके आचार विचार में बसा हुआ है। मैं अन्ना जी ने करबद्ध अनुरोध करना चाहूंगा कि पहले जनमानस में नैतिक आचार विचार का बिजारोपण करे तत्पश्चात जनलोकपाल बिल पास करने के लिए कदम उठाए । मैं अपने ही देश के लोगों के भ्रष्ट आचार विचार और व्यवहार से त्रस्त हूं । किसी भी कार्यालय में जाता हूं तो कोई भी सीधे मुंह बात नहीं करता,कार्य भले ही न हो । मेरा हृदय दुखित है । लोक निर्माण विभाग का कर्मचारी बिना पैस लिए सरकार मकान का कार्य नहीं करता । ऐसे अनेकों उदाहरण पेश किए जा सकते है। मेरा संदेश यह है कि अन्नाजी,आप यह कदम न उठाएं क्योंकि हमारे देश की भ्रष्ट जनता का आचरण कभी गांधीवादी नहीं हो सकता । गांधीबाबा के आचरण पर चलना अब टेडी खीर है। ...कृष्णशंकर

बुधवार, 23 मार्च 2011

कविताएं--कृष्णशंकर सोनाने

चांद
मेरे जागने से लेकर
सोने तक
वह मुस्तैद रहता है
मेरे साथ ।
जब मैं
सो रहा होता
वह जागते रहता है
जैसे पहरा दे रहा हो
जब मैं
चल रहा होता
वह मेरे साथ-साथ चलने लगता है
मेरे ठहरने पर
वह भी ठहरता है
मैं भले ही थोड़ा सुस्ता लूं
वह बराबर सजग रहा करता है
सुस्ताना उसने सीखा नहीं
लेकिन जब मैं
जाग जाता हूं
वह सो जाता है
जागने की तैयारी में
क्योंकि उसे पता है
मेरे सो जाने पर
उसे पहरा देना होगा
मुस्तैद होकर ।
( दिनांक 21.09.2010)

चाहने पर

चाहने पर
कभी चाहा हुआ नहीं होता
अनचाहा हो जाता है।
चाहने पर
यदि चाहा हुआ हो जाय तो
हम कहते हैं
यह तो होना ही था
इसलिए हो गया ।
चाहने पर
न तो रमा का अभिषेख हुआ
न ही पाण्डवों को राज्य मिला ।
चाहने पर
कभी नहीं बन पाती कोई कविता
कोई अच्छी सी कहानी
कोई आख्यान ।
चाहने पर
कुछ होना होता तो हो जाता
जैसे कोई राजनेता
लुच्चा,लफंगा,चिढ़ीमार ।
( नवम्बर,2010)

प्रेम करने के लिए

प्रेम करने के लिए
एक प्रिय का होना जरूरी है
जिसकी मांग में
भरा जा सके सिन्दूर
मेरी चुटकी में भरा सिन्दूर
किस मांग में भरूं
न मैं किसी का प्रिय हूं
न कोई मेरा प्रिय बना
मुझे तलाश है
एक अदद प्रिय की ।
( 31.12.2010)

जरूरत से ज्यादा

अक्सर लोगों की यह आकांक्षा रहती
कि उनके पास यह भी होता तो
कितना अच्छा होता,या
वह भी होता तो कितना अच्छा होता
इसे और उसे पाने की उनकी आकांक्षा
कुलांचे माने लगती है,और
उसे पाने के लिए
जी जान से ज्यादा मेहनत करने लगते हैं
और अन्तत: वे उसे पा ही लेते हैं
हालांकि ऐसा नहीं कि
उनके पास वह चीज पहले नहीं थी
लेकिन उनकी आकांक्षा थी
जो चीज उनके पास है
वह बहुत कम है
शायद उनकी जरूरत इससे ज्यादा की होगी
और यह चीज जरूरत से ज्यादा है
जरूरत से ज्यादा चीजें हवस को बढ़ावा देती है,और
.यह हवस कभी पूरी नहीं होती
.जरूरत से ज्यादा की हवस इन्सान को
भीतर ही भीतर खोखला कर देती है ।
.जरूरत से ज्यादा चीजें
.जगह मांगती है
और एक दिन ऐसा आएगा
सारी धरती
जरूरत से ज्यादा भर जाएगी ।
( दिनांक 03.03.2011)

बस्ती के लोग

अलग-अलग धड़ों में बण्ट गए है
मेरी बस्ती के लोग
बैठ बारूद पर तिलियां जला रहे हैं
मेरी बस्ती के लोग ।
भाई-चारा भूल बैठे है
नफरत की गांठ ऐंठ बैठे हैं
अपने मुख में कड़वी ज़बान
बरसों से लुकाए बैठे हैं
अड़ौसी-पड़ौसी दुआ-सलाम
भूल बैठे है मेरी बस्ती के लोग
अलग-अलग धड़ों में बण्ट गए है
मेरी बस्ती के लोग ।
रिश्ते-नाते कड़वे हो गए
अपने ही वाले भड़वे हो गए
घर अपनों का जलते देख-देख
बगले झाम्पते तड़वे हो गए
अब तो मान मार्यादा भूल बैठे है
मेरी बस्ती के लोग ।
अलग-अलग धड़ों में बण्ट गए है
मेरी बस्ती के लोग ।
कौन किसी पर करें भरोसा
पे्रम-प्याली में ज़हर परोसा
आनन-फानन मेल मिलाप है
फैला रखा है औपचारिकता का भूसा
जिस माला में फूल गूंथे हो
गोले-बारूद पिरो रहे है
मेरी बस्ती के लोग ।
अलग-अलग धड़ों में बण्ट गए है
मेरी बस्ती के लोग ।
( दि: 01.03.2011)

नास्टेल्जिया

तुलसी,जायसी और मीरा ने नहीं कहा,और
न ही कबीर या मुक्तिबोध ने कहा
बल्कि आप,हम सभी देख रहे हैं
गांधी के तीनों बन्दर भी अञ्जान नहीं है
लेकिन फिर भी
अन्यमनस्क होकर निरपेक्ष भाव से
टकटकी लगाए हुए है
जो हो रहा है उसे
महज़ साक्षी होकर तटस्थ है ।
परिवर्तन चाहे हो या न हो
लेकिन जो रोग घुन् बनकर लग चुका है
वह भीतर तक खोखला कर रहा है
विवश है गांधी और विवेकानन्द
चाहकर भी बदल नहीं पा रहे है मानसिकता
कर्णधारों और ऊंचे पदों पर आसीन
महामहिमों की ।
भीतर तक पूर्वाग्रह से ग्रसित रोग
इतनी आसानी से पीछा नहीं छोड़ता
जब तक कि हम स्वयं अपनी इच्छाशक्ति को
दृढ़ बनाने का संकल्प नहीं लेते ।
समूची मानवता ताक रही है
उस ओर
जहां से उसे पूरी उम्मीद है कि
एक न एक दिन
इस महारोग से मुक्ति मिल जाएगी
और
समरसता की जड़ों में कोपलें फूटेगी
वसुन्धरा हरी-भरी हो जाएगी
मुक्तिबोध एक बार फिर मुस्कराएंगे
कहेंगे
घुन् लगे इस रोग को सींचों मत
इसे समूल नष्ट कर दो
कि लहलहाएं मानवता
चाहे कितनी भी संकटापन्न स्थिति हो
कोई तो इलाज होगा
इस बीमारी का ।

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अतिरिक्त

कुछ महामहिमों के नामों का उल्लेख मिलता है,जो महिमा-मण्डित थे
बाकी सब अतिरिक्त थे ।
अतिरिक्त बहुसंख्यक होते थे
दुनिया के सारे कामधाम करने के बाद
महामहिमों के गोिष्ठयों में शामिल होते थे
उनके भाषणों पर वाह-वाह कर तालियां बजाते
प्रफुिल्लत होते और एकमत होते थे
अतिरिक्तों को ऐसे भ्रम में डाल दिया जाता था कि
उनके बिना महामहिमों का महिमा-मण्डित होना सम्भव नहीं
अतिरिक्त हमेशा ही गोिष्ठयों में शामिल होते थे
इसलिए वे अक्सर महामहिमों के शिकार होते थे।
वे महामहिमों की नज़रों से वंचित कर दिए जाते थे
हाशिए पर डाल कर नज़र-अन्दाज कर दिए जाते थे
अतिरिक्त किसी भी जोखिम से नहीं डरते थे
महामहिम उन्हें बरगालाने से पीछे नहीं हटते थे
वे जताते थे कि अतिरिक्तों के बिना उनका काम चलनेवाला नहीं है
और अतिरिक्त वे सारे काम करते थे
जिनसे महामहिमों की महिमा-मण्डित की बने रहने की पोजिशन बची रहे
अतिरिक्त जानते हैं कि अतिरिक्तों के बिना महामहिमों के सिर पर
महिमा-मण्डित के पद से गिरने का खतरा बना रहता है ।
अतिरिक्त हर सभा-गोिष्ठयों में शामिल होते थे
अतिरिक्त ज्यादातर सिरफिरे महामहिमों की गोिष्ठयों में
बतौर अतिरिक्त नज़र आते रहते थे
अतिरिक्तों को उखाड़ फेकने में महामहिमों भूमिका
बरकरार बनी रहती है।
(2)

अतिरिक्त के बग़ैर
किसी सभा-गोष्ठी की शोभा
नहीं ही होती है ।

यह वो अतिरिक्त है
जो सफलता की गैरण्टी है
मसलन,अतिरिक्तों की उपस्थिति का मतलब
सभा-गोिष्ठयों की सफलता
अतिरिक्तों के बग़ैर
सफल होते नहीं देखी गई
सभा-गोष्ठियां ।

ये जो अतिरिक्त है
समझते हैं कि इनके बिना
सभा-गोष्ठियों की रंगत
नहीं ही बढ़ सकती है।

बुलाए, बिना बुलाए अतिरिक्त की पूरी फौज
हर सभा-गोष्ठी में
देखी जा सकती है ।

भले ही छोड़ना पड़े चाहे जितने जरूरी
घरेलू-पारिवारिक कार्य
महामहिमों की सभा-गोष्ठियों में शामिल होना
वे अपना कर्तव्य समझते थे
सम्भवत: अतिरिक्तों को अतिरिक्तों की श्रेणी में
आता ही होगा आनन्द ।

अतिरिक्त,अतिरिक्त ही कहलाते थे
बाकी जो होते थे महामहिमों की श्रेणी में आते थे
अतिरिक्तों के बिना इनका
महामहिम होना भी कठिन ही था।

यह जो अतिरिक्त है
जनभागीदारी की तरह
अतिरिक्तों की भागीदारी का विकल्प होते थे
जनभागीदारी में
जन की भागीदारी की गैरण्टी होती ही है
कोई जरूरी नहीं अतिरिक्तों की अतिरिक्त-भागीदारी
अतिरिक्तों को ठीक उसी तरह अतिरिक्त माना जाता है
जिस तरह वे अतिरिक्त है,अतिरिक्त की बनें रहें
सारी सफलता के तमगें
महामहिमों के कान्धों पर चस्पा हो जाते थे,और
अतिरिक्तों को अतिरिक्त ही रहने दिया जाता था
अन्यथा किसी दिन अतिरिक्त महामहिम बन जाएंगे
और अतिरिक्त के बजाय महामहिम कहलाएंगे
महामहिम नहीं चाहते थे कि कोई अतिरिक्त
महामहिम बनकर उनकी बगल में विराजमान हो जाएं
अतिरिक्तों को ऐसा सौभाग्य कभी नहीं मिलता था।

अतिरिक्त अन्तत: अतिरिक्त ही बने रहते थे
महामहिमों के कान्धे दमकते रहते थे तमगों से ।

अतिरिक्त,रजतपट के एक्स्ट्रा की तरह
ताजिन्दगी अतिरिक्त की बनें रहते हैं ।

(दिनांक: 22 मार्च 2011 मंगलवार )