कुत्ता और हड्डी
कुत्ता हड्डी बड़ी देर तक चबाता है
अक्सर उसे पूरे पांच साल लग जाते हैं
चबाते हुए हड्डी
हडड्ी चबाना उसका शगल है
कभी कभी वह
झपटट् मारता है
दूसरे के मुंह से छीनने के लिए
कभी वह कामयाब होता है
कभी वह नाकामयाब होता है
एक बार मुंह में हड्डी आने पर
वह इतनी मजबूती से दबाए रखता है
कि कोई दूसरा कुत्ता झपट न लें उसके मुंह से
गुर्राता भी है कुत्ता
डराने के वास्त
ताकि कोई दूसरा कुत्ता
छीन न लें हड्डी उसके मुंह से
चबाते चबाते हड्डी भले ही टूट जाए
लेकिन छूटने न पाये मुंह से
कोशिश लगातार चलती रहती है और चलते रहेगी
कुत्ता कोई भी हो
पूरे पांच साल तक
हडडी चबाना उसका शगल हो जाता है।
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आदमी ब्लाउस जैसा कमीज पहन सकता है ।
यह सवाल जहन में उठना लाजमी है
शर्मो-हया की हद होती है या नहीं
मुझे नहीं है ज्ञात
किसी एक वर्ग की नही है यह बपौती
वैसे शर्माे-हया आरक्षित है
जैसे आरक्षित है
सभ्यता,संस्कृति और
कायदें सभी के लिए ।
कायदों में ज्यादा छूट दी गई है
जैसे खुली पीठ और
नाभी दर्शन कराते हुए उजले पेट
साँचीनुमा उभरे उरोज
दिखाई देते मुख्य व्दार
गोरी-गोरी मखमली लम्बी चिकनी बांहे
झांकते हुए बगलों की कमनीयता
लचकते कमर का भूगोल
मौसम की दरकार नहीं
ठिठुरते पौष में भी
भला लगता है प्रदर्शन ।
अक्सर सोचा करता हूं
नख-शिख तक क्यों
ढका होता है पुरूष
पेंट फूल,शर्ट-फूल,कोट-फूल
फूल मौजे तसनों से कसे जूते
हाथों के पंजे
गर्दन से सिर तक अंग
जायज है सिर्फ दिखाने के वास्ते
अपनी गरीमा बनाए रखने के लिए ।
मेरी गुजारिश सिर्फ इतनी है
मर्द ब्लाउस जैसा कमीज
पहन तो सकता है न ?
चैड़ा वक्ष-पीठ,कमर उन्नत कांधे
और नाभियुक्त उदर
पौरूषता लिए विशाल वक्षस्थल पर
लहराते घनकेशपाश
दर्शन करवा तो सकता हैं
रख सकते हैं सुड़ौल बलिष्ठ खुली भुजाएं
पहन सकते हैं ब्लाउस जैसा कमीज ।
सबसे अहं बात है
मर्द अपने जिस्म पर
कम से कम वस्त्र पहन
कैटवाक कर सकता है रैंप पर...
सुन्दरता का परचम
फहराया जा सकता है
इतनी तो मोहलत
मिली ही चाहिए मर्द को ।
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4-मैंने ईज़ाद की कविता
डमरू के डम डम से
बिखर गए शब्द
ब्रह्माण्ड के अण्ड से फूट पड़े स्वर
वीणा के नाद से गूंज उठा नाद
शंकर के नृत्य से तरल हुए भाव
भारती के नयनों से निकल पड़ा विभाव
शिव की जटा से बह निकली सरिता
एकत्र कर सारे उपकरण
मैने इजाद की कविता ।
ऊषा के भाल पर
छिड़क गया सिन्दूर
सूरज की किरणों से
बिखर गया नूर
फूलों से टपक पड़ा
कोमलता का भाव
यौवन की चल पड़ी
चंचल सी नाव
मदमाती इतराती
विहंस पड़ी गर्विता
अम्बर के पास से
मैंने ईजाद की कविता ।
बरस पड़ा रस
नवरंग नवरस में
जीवन गया बस
निर्धन की झोपड़ी में
रिक्त पड़े कक्ष
सीमा पर फौजी है
कर्मठा में दक्ष
ममता के आंचल से
बहा नेह राग
पी के अधरों पर
पे्रममय पराग
कली-कली,पुष्प-पुष्प
भौरा है गाता
सृष्टि के प्रांगण में
मस्त हो जाता
रच डाली शब्दों की
सुन्दर सी सरिता
अभिव्यंजना के रंगों से
मैंने ईजाद की कविता ।
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शनिवार, 28 जनवरी 2012
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