मंगलवार, 13 मार्च 2012

हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद-------कहानी --कृष्णशंकर सोनाने

अभी मैं नींद से जागा ही था । बाहर शोर हो रहा था । स्कूल के विद्यार्थी नारे लगा रहे थे..‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’ मेरी पलकों में नींद का खुमार था लेकिन नारों की ऊँची आवाज़ें बढ़ती जा रही थी । मैंने दोबारा बिस्तर में लेटने की अपेक्षा उठ जाना मुनासिब समझा । मैं उठ बैठा । खिड़की से झाँक कर देखा । स्कूल के विद्यार्थी तिरंगा लिए ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’ के नारे लगा रहे थे । शायद रेली लम्बी थी । लगभग आधे घण्टे के बाद रेली खत्म हुई । धीरे-धीरे सरकते हुए रेली दूर तक जाती दिखाई दी । अब तक नींद का खुमार उतर चुका था ।
नित्यक्रिया से फुरसत हो मै तैयार होकर बाहर निकला । सोचा,चलो मौसम का मिज़ाज देख लिया जाय । जगह-जगह तिरंगे लहरा रहे थे । तख्तियों और बेनरों पर ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’ के नारे लिखे हुए थे । मकानों ,छज्जों ,बंगलों,सरकारी-ग़ैर सरकारी दफ्तरों ,पेड़ों,पुलियाओं और बसों पर ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’ के नारे यहाँ-वहाँ लटके दिखाई दे रहे थे । जिस भी ओर देखता हूँ उसी ओर ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’ दिखाई दे रहा है । सुनाई दे रहा है । मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मेरे चारो ओर ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’ का एक बड़ा सा जाल बिछ गया है । यह भी हो सकता है कि शायद मेरे कान बज रहे हो लेकिन हाँ,दो बड़े-बड़े बेलून जिस पर ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’ लिखा हुआ था,आसमान में तैर रहे थे । मैं दूसरी ओर की गली में गया फिर और दूसरी गली में गया । यहाँ तक कि मैं दूसरी ओर की काॅलोनी में भी गया,वहाँ भी ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !’’ नज़र आ रहा था । मैं तो सकते में आ गया । सोचने लगा,यह हमारे देश को हो क्या गया है ?
‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’
‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’
‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’

चैराहे की चाय की दुकान पर जा बैठा । रेडियो पर ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’ का कोई कोरस गीत बज रहा था । चायवाले ने कहा,-
‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! ’’
‘‘............ जि़न्दाबाद ! ’’
‘‘केवल जि़न्दाबाद से काम नहीं चलेगा सर जी, हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद कहें ।’’
‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !’’ मैंने हंसकर कहा ।
‘‘ हाँ...अब ठीक कहा ।’’ चाय का गिलास रखते हुए वह बोला ।
मैं चाय की चुस्की लेने लगा ।
‘‘ये रेली आज क्यों निकली ?’’ मैंने चायवाले से पूछा
‘‘राजधानी से कोई नेता-वेता आए हुए हैं । ये रेली....’’
वह बोलते हुए रूका फिर बोला,-
‘‘ये नेता लोग है न सर जी... जाने क्या-क्या करते रहते हैं ? यह प्रजातंत्र है या नेतातंत्र है ? कुछ समझ नहीं आता । ये नेता जो करें सो कम है । वो ऐसा है न सर जी कि.....चलो जाने दो फिर भी मैं तो कहता हूँ ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !’’
वह फिर चाय बनाने में व्यस्त हो गया । शायद उसे कोई रूची नहीं होगी । मैंने भी रूची लेना मुनासिब नहीं समझा । इसलिए अपनी राह पकड़ ली ।
‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद...’’
‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद...’’
के नारे मेरे ज़हन में गूँजने लगे। आज़ादी के साठ वर्ष बाद आज ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद...’’ के नारे एक मंत्रीजी के स्वागत में लगाए जा रहे हैं। यह मेरी समझ से बाहर लग रहा था । दिमाग में अजीब ढंग के खयालात उठने लगे । सहसा लगा,मेरे कानों में आवाज आई,-
‘‘मंत्रीजी मुर्दाबाद...मंत्रीजी मुर्दाबाद...’’
‘‘नहीं ..नहीं..मंत्रीजी भी जिन्दाबाद..’’
‘‘जिन्दाबाद क्यों होना चाहिए । उन्होंने देश को आज़ाद कराया है क्या ?’’
‘‘नहीं तो...’’
‘‘तो फिर मंत्रजी मुर्दाबाद क्यों नहीं ..’’
‘‘.चाहे मुर्दाबाद कहो या जिन्दाबाद कहो । दोनों में ही आबाद लब्ज का इस्तेमाल हो रहा है ।’’
‘‘तो...’’
‘‘तो क्या दोनों ही आबाद होते ही है । मंत्रीजी की आबादी दोनों तरफ है । उन्हें कौन सा फर्क पड़ता है ।’’
‘‘अभी हिन्दुस्तान पूरी तरह से आज़ाद नहीं है । अभी कश्मीर को भी आज़ाद होना बाकी है ।’’
‘‘तो चलो,हम कश्मीर को आधा आज़ाद कर देते हैं ।’’
‘‘हमें तो पूरी तरह से आज़ाद कश्मीर कहना चाहिए ।’’
‘‘आधे से काम नहीं चलेगा....’’
‘‘जिन्दाबाद..आबाद..जिन्दाबाद ..कश्मीर जिन्दाबाद ’’
‘‘हाँ..अब ठीक कहा आपने । कश्मीर आज़ाद हो तो पूरा देश आज़ाद होगा ही ।’’
‘‘केवल नारे लगाने से कुछ नहीं होगा । कुर्बानी देनी होगी । ’’
‘‘कुर्बानी हम क्यों दे । कुर्बानी के लिए जनता है । सैनिक है । जवान है । हम तो आज़ादी का लुत्फ उठानेवाले हैं। यही हमारा धर्म भी है ।’’
‘‘ तो तुम कायर हो ...तमाशा देखनेवाले ।’’
‘‘नहीं..आज़ादी का जश्न हम ही तो मनाएंगे और हम भी आज़ाद रहेंगे । कोई क्यों रहे ?’’
‘‘आज़ादी नेताओं-मंत्रियों का जन्मसिद्ध अधिकार है । जनता जाए भाड़ में ।’’
‘‘कुर्बानी कोई और दे ,आज़ादी का लुत्फ कोई और उठाए ।’’
‘‘यही सिद्धान्त है नेतातंत्र और मंत्रीतंत्र का।’’
दिमाग में एक झटका सा लगा । जाने क्या-क्या खयालात ज़हन में उठा करते हैं । यह इन्सान का दिमाग भी क्या चीज़ है ? देश के जवान और देशवासी यदि कुर्बानी नहीं देते तो यह नेता और मंत्री क्या खाक हुकूमत चला सकते। राज करते हैं ये मंत्री हम जनता पर और एक हम है कि उनकी जी हुजूरी में लगे रहते हैं । होना तो यह चाहिए कि इन नेताओं और मंत्रियों ने जनता की सेवा करना चाहिए । लेकिन नहीं, ये ऐसा क्यों करेंगे ? सच्ची आज़ादी तो इन्हीं की लगती है,हमारी नहीं ।
‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद...’’ का नारा सामने वाले पेड़ पर उल्टा लटक रहा है,लेकिन वह ज्यादा ऊँचाई पर होने के कारण हाथ पहुँच नहीं पा रहा है । तभी ज़ोरों से आँधी का झोंका आया और साथ में लाया दो-चार ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद...’’ के उड़ते हुए झण्डे,जो इधर-उधर बिखरने लगे । मैंने उन्हें बटोरने की कोशिश की किन्तु तेज आँधी उन्हें उड़ा ले गई । थोड़े ही क्षण में ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद...’’के नारे गन्दे नाले में डूबकियाँ लगाने लगे । वाह ! क्या खूब इज्जत है इन ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद...’’की । क्या यही हमारी आज़ादी की इज्जत है ? मुझे हमारी कौम पर फक्र होने के बजाय उन पर लानत भेजना अधिक मुनासिब लग रहा है । हमारी कौमें क्या इसी तरह आज़ादी को संभालेगी ?
क्या देखता हूँ कि कुछ लोगों का झुण्ड एक आदमी के पीछे ‘‘मारो.मारो’’करते हुए दौड़ा चला जा रहा हैं । सभी के हाथो में कोई न कोई हथियार है । आदमी ‘‘बचाओ.बचाओ’’चिल्लाते हुए भागा जा रहा है । थोड़ी ही दूरी पर भीड़ उस आदमी को घेर लेती है । उसे इतना पीटती है कि वह अधमरा हो जाता है । तब उत्तेजित भीड़ उस पर कुछ पानी जैसा तरह डालती है और आग लगा देती है । समझते हुए देर न लगी किन्तु उत्तेजित भीड़ को समझाना या किसी तरह नियंत्रित करना मेरे लिए आसान नहीं था । जब वह जलने लगा,भीड़ आनन्दोत्सव मनाती हुई,वहाँ से भाग निकली ।
देखते ही देखते मोहल्ले में तनाव फैल गया । घरों और दुकानों में आगजनी होने लगी । मोहल्ले में खून-खराबा होने लगा । सेना का पहरा बैठ गया । देखते ही गोली मारने के आदेश हो गए । दो दिनों तक मोहल्ला जलता रहा । इन हादसों के दौरान कोई नेता या मंत्री जनता के बीच नहीं आया और न ही किसी ने यह खून-खराबा रोकने की कोशिश की । यह भी जानने की कोशिश नहीं की कि कितने लोग आगजनी और खून-खराबे के शिकार हुए ? पूरे एक महिने तक मोहल्ले में खामौशी छाई रही । मैं भी छुप-छुपाकर बाहर निकलता रहा और मोहल्ले भर का जायजा लेते रहा । दो महिने के बाद सुकून मिल सका । जब पूरी तरह से शान्ति छा गई तब सत्ताधारी नेता और मंत्री जले पर मरहम लगाने आए ।
‘‘हम जानते हैं यह सब ठीक नहीं हुआ। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है । बावजूद सरकार आपके साथ है और आपको न्याय मिलेगा ।’’
‘‘क्या खाक न्याय मिलेगा ।’’
‘‘हम आपको न्याय दिलाकर रहेंगे ।’’
‘‘हमारे अज़ीजों को जीला दो तो हम मानेंगे कि आपने न्याय किया है ।’’
‘‘सुनो , जो इस दुनिया में नहीं है उसे वापस नहीं लाया जा सकता किन्तु जो है उसकी रक्षा की जा सकती है। वह हम करेंगे ।’’
‘‘तुम्हारा कोई अपना मरा की नहीं मंत्रीजी और नेता जी । नहीं ना....जब तुम्हारा कोई मरेगा,तब तुम्हारी आँखे खुलेगी । अभी नहीं । इस समय तो तुम्हारी आँखों पर सियासत की पटट्ी चढी हुई है।’’
‘‘तुम्हारे जिगर का टुकड़ा कटेगा तब तुम्हें पता चलेगा मंत्रीजी ।’’
‘‘तुम रण्डवे बनोगे तब तुम्हारी नींद भाग जाएगी नेताजी ।’’
‘‘अरे,हमें तो यह लगता है कि यह सब खून-खराबा और आगजनी ये ही नेता और मंत्री लोग कराते होगे । जनता को क्या आ पड़ी यह सब करने की । तभी तो यह हमारे ज़ख्मों पर मरहम लगाने आए है । वोट की राजनीति है यह सब ।’’
जितना मुँह उतनी बातें होती है और यह सब हुआ ।
’’ना ही नेता जी और ना ही मंत्री जी कुछ करते । सब के सब रोटियाँ सेंकने की फिराक में लगे रहते हैं।’’
भीड़ धीरे-धीरे बिखर गई । गाल बजाते हुए मंत्रीजी और उनके चेले चपाटी रह गए । मंत्रीजी अपने शागिर्दों से बोले,-
‘‘ऐसे ही रहा तो हमारी पार्टी को वोट कौन देगा ?’’शागिर्द,मंत्रीजी का चेहरा देखते रह गए या यों कहें कि बगलें झांकने लगे । मंच पर मंत्रीजी थे और सामने खाली मैदान पड़ा रहा ।
मैं वहाँ से चलता बना । मंत्रीजी की सभा में मेरा क्या काम ? लेकिन नहीं,सामने से दौड़ते हुए गिरधारीलाल चले आ रहे थे । बहुत हाँफ रहे थे । मैंने पूछा,-
‘‘इतनी जल्दी में कहाँ चले जा रहे हो गिरधारी भाई ?’’
‘‘मंत्रीजी से मिलने के लिए । आज उन्होंने मेरा काम करने का वादा जो किया है ।’’
‘‘काम ? कैसा काम ? कैसा वादा ?’’
‘‘अरे वही ट्रान्सफर का वादा ।’’
‘‘लेकिन आप तो यह ब्रिफकेस लिए जा रहे हैं ।’’
‘‘यह ब्रिफकेस ही तो उन्हें देना होगा,तब ही तो ट्रान्सफर होगा न भैया ।’’
‘‘मैं समझा नहीं ।’’
‘‘आजकल बिना लिए दिए कोई काम होता है क्या,तुम ही बताओ ? मंत्रीजी कह रहे थे,उन्हें यह नहीं चाहिए । यह तो पार्टी के लिए मात्र चन्दा है,चन्दा ।’’
‘‘पार्टी के नाम चन्दा है ।’’
सुनकर मैं सकते में आ गया । समझने में देर न लगी । गिरधारी का ट्रान्सफर तब ही होगा,जब वे माननीय मंत्रीजी को यह भरा हुआ ब्रिफकेस देंगे । गिरधारी फिर बोले,-
‘‘अच्छा चलता हूँ । कहीं ऐसा न हो कि देर हो जाए ।’’
गिरधारी जी तेजी से उसी ओर चल दिए जिस ओर मंत्रीजी अपने शागिर्दों के साथ रूख्सत कर रहे थे । मैं खड़ा-खड़ा देखता रह गया ।
पिछले चार महिने से पिताजी का स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण वे पेंशन लेने नहीं जा सके । उन्हें अन्तरिम पेंशन मिल रही थी । बाकी पेंशन मिलना अभी बाकी था । मैं ठहरा बेरोजगार । सारा दिन आवारागर्दी करते रहने के सिवाय कोई चारा नहीं था । इधर शहर और मोहल्ले में हुई घटना से मैं अब तक उबर नहीं पा रहा था । ज़हन में हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद के नारे गूँजने रहे ।
सुबह से यों ही इस गली से उस गली गटरमस्ती करते हुए मैं दस बजे घर जा पहुँचा । सोचते हुए बरामदे में ही ठिठक गया । दोबारा याद आया,आज मुझे पिताजी के पेंशन के सिलसिले में पेंशन कार्यालय जाना होगा । आज भी गुर्जर बाबू बहाने बनाएंगे । जाने क्या चाहते हैं गुर्जर बाबू । सरकारी कार्यालयों में कामकाज बहुत धीमी गति से चलता है । ऐसा लगता है,ये सरकारी कार्यालय नहीं है बल्कि किसी ऐजेण्ट की दुकान है । यहाँ सुनवाई कम होती है और फजीहत ज्यादा होती है ।

मेरे पिता को सरकारी नौकरी से रिटायर हुए कुछ ही महिने ही हुए हैं। पेंशन कार्यालय से अभी तक पूरी पेंशन नहीं बन पाई है। पिछले दो सप्ताह से पेंशन कार्यालय के चक्कर लगा रहा हूँ। आज भी पेंशन कार्यालय जाना है । आटो से सीधे पेंशन कार्यालय पहुँचा । गुर्जर बाबू के पास भीड़ लगी थी । मैं कुछ क्षण तक उनके सामने खड़ा रहा । उन्होंने मेरी ओर देखा तक नहीं । मेरी तरह और लोग भी उनके सामने खड़े थे । वे एक-एक करके वापस चले गए,तब मैं करबद्ध होकर बोला,-
‘‘ गुर्जर बाबू ! नमस्ते सरजी ।’’
‘‘नमस्ते ! कहिए ..’’
‘‘मेरे पिता श्री राधेश्याम जी का पेंशन प्रकरण....’’
‘‘अच्छा-अच्छा श्री राधेश्याम जी ! उनका पी पी ओ तो अभी आया नहीं ।’’
‘‘पी पी ओ भेज चुके हैं ।’’
‘‘नहीं..नहीं.. नहीं आया । पी पी ओ के आने पर ही फाइल बनेगी ।’’
‘‘सर जी !’’
‘‘पी पी ओ आया होता तो अब तक फाइन बन गई होती । पीपीओ आ जाने दो ।’’
‘‘ऐसा है सर जी ! उनके कार्यालय ने बताया कि पीपीओ एक महिने पहले भेज चुके हैं ।’’
‘‘ऐसा है भई !...ठीक है । आप कल आइए...फिर देखते हैं क्या हो सकता है ?’’
‘‘ कल ? क्यों ? आज क्यों नहीं ?’’
‘‘आज टेम नहीं है । राधेश्यामजी का पीपीओ यदि आया है तो ढूँढना पड़ेगा न और यदि आया होगा तो...अच्छा, अभी बैठिए । देखता हूँ क्या हो सकता है ?’’
गुर्जर बाबू के कहने पर मैं बाहर मेंच पर जा बैठा । दोपहर का समय रहा होगा । मैं दो घण्टे बाहर बैठे रहा । लंच के बाद जैसे गुर्जर बाबू को अचानक याद आ गया हो । बोले,-
‘‘अरे तुम अभी तक बैठे हो । चलो,आपका काम हो जाएगा लेकिन उसके लिए कुछ खर्चा करना होगा । ऐसा है दोस्त कि साहब को भी देना पड़ता है ।’’
मैं उसका चेहरा देखने लगा तो वह फिर बोला,-
‘‘नहीं..तो फिर कल आइएगा ।’’
वह जाने लगा । मैं स्तब्ध सा गुर्जर को जाते देखते रहा । अचानक रूककर मैंने गुर्जर बाबू को रोक लिया,-
‘‘पहले ही बता दिया होता तो इतना वक़्त जाया नहीं जाता ।’’
‘‘ अरे ! यह कोई कहने की बात है । यह तो आपको समझना चाहिए था । आप लोग तो ऐसे ही चले आते हो,जैसे सारा काम अभी हो ही जाएगा ।’’
‘‘सर जी ! नाराज नहीं होइएगा । ठीक है । रूको...अच्छा . यह कुछ है मेरे पास इसे रख लो । कुछ कम हो तो बताइए ।’’
‘‘ठीक है । ठीक है । इतना ठीक है । यह पहले की कर देते तो अब तो काम हो जाता । अच्छा कोई बात नहीं । अब आपका काम हो जाएगा । आप कल आ जाइएगा । पूरा काम हो जाएगा ।’’
गुर्जर सर के चेहरे पर मधुर मुस्कान थिरक गई । दो दिन के भीतर ही शेष रूकी पंेशन और एरियर्स की रकम भुगतान करने के आदेश जारी हो गए। पेंशन कार्यालय के बाहर होर्डिंग पर बड़े-बड़े अक्षर चीख रहे थे..‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’

थोड़ी राहत की सांस ली । यह सोचकर कि ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’ बोलकर ही सारे काम कराने होंगें । पेंशन कार्यालय के बाहर निकला । जेब में मात्र सौ रूपए के दो नोट बाकी बचे थे । आटो से जाने का सोचा फिर मन में आया,सिटी बस से ही जाना ठीक होगा ।
बस स्टाप पर बीस-बाइस बरस की उम्र का एक लड़का भीख मांग रहा था । वह एक पैर से घसीटते हुए चल रहा था । उसे देख हृदय में दया आ गई । मेरे पास आकर उसने हाथ पसारा,बोला,-
‘‘बाबूजी ! भगवान आपका भला करें । दो-एक रूपया दे दो । अपाहिज हूँ ।’’
उसके चेहरे पर उदासी के भाव देख मेरा हृदय पसीज़ गया । मैं बोला,-
‘‘भई मेरे पास खुले पैसे नहीं है । एक सौ का नोट है ।’’
‘‘खुले हो जाएंगे बाबूजी । लाइए मैं दे देता हूँ ।’’
उसने अपनी पेंट की जेब में हाथ डाला । दोनों हाथों भरकर उसने इतनी सारी चिल्लर निकाली कि मैं देखते रह गया । मैंने पूछा,-
‘‘इतनी सारी चिल्लर ?’’
‘‘ये तो कुछ भी नहीं बाबू जी ..इससे भी ज्यादा चिल्लर आ जाती है ।’’
‘‘इतनी चिल्लर तुम्हारे पास कहाँ से आती है ?’’
‘‘दिन भर में इतनी भीख मिल ही जाती है ।’’
‘‘और तुम्हारा यह पैर.....!’’
वह हंसते हुए तन कर सीधा खड़ा हो गया,बोला,-
‘‘पैर तो बिल्कुल ठीक है । यह तो हमारा धन्धा है बाबू जी । यदि हम ऐसा न करें तो भूखे मर जाएंगे । कोई भीख ही नहीं देगा ।’’
उसने जल्दी-जल्दी ढ़ेर सारी चिल्लर निकालकर मेरे हाथ पर धर दी और जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी मेरे हाथ से एक सौ का नोट लेकर चम्पत हो गया। मैं सम्मोहित सा उसे देखते रहा । मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं था । मैं जाने कब बड़बड़ा उठा,पता ही नहीं लेकिन पास ही खड़ा राहगीर बोला,-
‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! बाबूजी ! ये लोग इसी तरह लोगों को ईमोशनल बनाकर लुट लेते हैं । आपका क्या गया बाबू जी ! ज़रा अपनी जेब तो देखो ।’’
मैंने जेब टटोली । मेरे होश उड़ गए । उसने जो चिल्लर दी थी,वह मात्र अस्सी रूपये की थी साथ ही जो एक सौ रूपये का नोट का वह नदारत था । मैं माथा पीटकर रह गया । हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !! का नारा मेरे मस्तिष्क में गूँज उठा ।
‘‘ अरे मैं तो लुट गया ।’’
‘‘ ये तो इनका रोज़ का धन्धा है ।’’
‘‘इसी को कहते हैं ईमोशनल लूट ।’’
मैं लुट-लुटाया पैदल ही चल पड़ा । शायद दफ्तर छूटने का वक़्त होगा । सड़क पर भीड़ बढ़ती जा रही थी । मेरे लिए पैदल चलना अब लाजमी था । आगे चैराहा जाम था । पता लगा कि चैराहे पर किसी मंत्री का भाषण हो रहा है । लेकिन मेरे कानों में एक ही आवाज़ गूँज रही है..‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद ! हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद !!’’ यह कैसा जिन्दाबाद जो देश को न तो जिन्दा रख रहा है न आबाद कर रहा है । सैकड़ों सवालात मेरे ज़हन में उठने लगे ।
कुछ पुलिसकर्मी किसी मुजरिम को हथकड़ी पहनाए ले जा रहे हैं । उन्हें देख मैं ज़रा ठिठका फिर चल पड़ा । मंत्रीजी भाषण दे रहे हैं । पुलिस भी भीड़ देखकर रूक गई । बीच-बीच में हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद के नारे लग रहे हैं । मंत्रीजी जाने क्या कह रहे थे । भीड़ में समझ नहीं आ रहा था । मैं भीड़ में शामिल हो गया । पुलिस मुजरिम को लेकर खड़ी रही । मंत्रीजी जनता को सम्बोधित कर रहे हैं । कह रहे हैं,-
‘‘आज सद्भावना दिवस है । आज के दिन राजिव गाँधी का जन्म दिवस बनाया जाता है । वे देश में सद्भावना के प्रतीक रूप में माने जाते हैं । हम सब मिलकर आज सद्भावना दिवस के इस अवसर प्रतिज्ञा लें । पहले मैं कहूँगा तत्पश्चात आप सब दोहराएंगे ।’’
मंत्रीजी कुछ क्षण तक चुप रहे । भीड़ में खामौशी छा गई । पुलिस और मुजरिम भी तटस्थ खड़े रहे । मंत्रीजी खखारे और प्रतिज्ञा पढ़ने लगे,-
‘‘मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं जाति,सम्प्रदाय और धर्म अथवा भाषा का भेदभाव किए बिना सभी भारतवासियों की भावनात्मक एकता और सद्भावना के लिए कार्य करूँगा । मै पुनः प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं हिंसा का सहारा लिए बिना सभी प्रकार के मतभेद बातचीत और संवैधानिक माध्यमों से सुलझाऊँगा ।’’
भीड़,मंत्रीजी व्दारा पढ़ी गई प्रतिज्ञा को दोहराते रहे । बीच में किसी ने नारा लगाया..
‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद...’’
‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद...’’
भीड़ के नारे से आकाश भी ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद...’’के नारे से गूँज उठा । मुझे लगा हिन्दुस्तान में आसमान भी आज़ादी की खुशियाँ मनाने लगा है।
लेकिन यह क्या ? तीन-चार पुलिस मिलकर साथ में लाए हुए मुजरिम को लातों-घूँसों से पीटने लगे हैं। उसे घसीटते हुए ले जाने लगे हैं। भीड़ देखकर मेरा हौसला बढ़ा हुआ था,मैं बीच में हस्तक्षेप करते हुए बोला,-
‘‘अरे भई उसे क्यों पीट रहे हो । उसका कसूर क्या है ?’’
‘‘वह हथकड़ी छुड़वाकर नारे लगाने लगा । वह मुजरिम है ।’’
‘‘ भाग तो नहीं गया न वह । हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद के ही तो नारे लगा रहा है ।’’
‘‘वह मुज़रिम हैं ।’’
‘‘लेकिन वह हिन्दुस्तानी भी तो हैं न । उसे अधिकार है हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद के नारे लगाने का ।’’
‘‘नहीं...नहीं...ऐसा नहीं चलेगा । वह मुजरिम है । वह हथकडि़यों समेत नारे लगा रहा था ।’’
पुलिस मानी नहीं । उस मुज़रिम को पीटती रही । मुजरिम अब भी ‘‘हिन्दुस्तान जि़न्दाबाद...’’के नारे लगा रहा था ।

oo

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